December 31, 2008

'' बच्चा गायब हो गया तो क्या हुआ, और पैदा कर लो ''

आज कई दिनों के बाद सोच रहा था कि ब्लाग पर कुछ लिखा जाए। लेकिन आखिर वह क्या बात है जिसे हम लोगों को बताना चाहें। काफी देऱ से यह विचार कर ही रहा था कि एक व्यक्ति में मेरे पास आया और एक लिफाफा देकर बिना कुछ कहे चला गया। उत्सुकतावश मैने उसे खोला तो उसमें ब्लैक एंड ह्वाइट रंग तस्वीर वाली एक मैगजीन थी। समाज के विभिन्न तबकों के हितों के लिए कुछ न कुछ करते रहने वाले एक संगठन ने इस मैगजीन को निकाला था। मैगजीन का कवर स्टोरी राजधानी में गुम होते बच्चों पर आधारित थी। इस पुस्तक में बड़े ही विस्तार से दिल्ली में गायब हो रहे बच्चों के बारे में जानकारी थी। लब्बो लुबाब यह था कि हजारों की संख्या में गुम होने वाले इन बच्चों में से ज्यादातर गरीब परिवारों के बच्चे होते हैं। जिनकी फिकर सिर्फ चुनाव के दिनों में नेता लोग कर लेते हैं आइंदा किसे फुरसत है कि गरीब के साथ क्या हो रहा है। इस मैगजीन में किए गए दावों को अगर माने तो दिल्ली पुलिस ने बच्चों के गायब होने के ९० प्रतिशत मामलों को दर्ज ही नहीं किया है। रिपोर्ट में सबसे अधिक पुलिस के संवेदनहीन रवैये का जिक्र किया गया है। जैसे जब गरीब घरों के लोग बच्चों के गायब होने के बाद थानों में जाकर पुलिस से उन्हें ढूंढ़ने में मदद करने को कहते हैं तो वे कहते हैं कि '' बच्चा गायब हो गया तो क्या हुआ, और पैदा कर लो। ''
इस पत्रिका में ८२ बच्चों के बारे मे डिटेल भी दी गई है।

December 29, 2008

मुद्रा अवस्फीतिः मेरी धारणा

मैं अक्सर सुबह देर से सोकर उठता हूं। आज काल वेल की आवाज पर नींद टूटी तो सीधे आंख मलते हुए जाकर दरवाजा खोल दिया। देखा कि घर के बाहर दूधवाला, फलवाला, किरियाने वाला सभी खड़े थे। मैं चकराया कि क्या वे महीने का बकाया वसूल करने आ पहुंचे हैं। लेकिन अभी तो महीने में तीन दिन बाकी हैं। वैसे भी हम अखबार वालों को सात तारीख के बाद वेतन मिलता है। अलबत्ता मैं उधार तो कुछ खरीदता भी नहीं। मैने पूछा कहो भाई कैसे आए हो आप लोग। सामने किरियाने वाले लाला जी खड़े थे भइया अगले महीने का सामान आपको पहुंचाने आया हूं। एक साथ पूरे महीने का राशन है। उन्होंने साथ मे खड़े लड़के के हाथ में लटकते बडे़ से बैग की ओर इशारा किया। मैने कहा कि लेकिन भइया मैं तो सात तारीख के बाद सामान खरीदने आता हूं। लालाजी बोले कोई बात नहीं रख लो भागे थोड़े ही जा रहे हो पैसा बाद में दे देना। मैं लाला के इस स्वभाव से प्रभावित होने के बजाय आतंकित हो उठा कि जो लाला सात तारीख को पैसा न मिलने पर किसी न किसी बहाने फोन पर बकाया का जिक्र जरुर कर देता था वह इतना उदार क्यों हो गया है। फिलहाल मैने सामान रख लिया। लाला के पीछे खड़े दूधवाले को मैने कहा कि सात तारीख कोआकर पैसा ले जाना। वह बोला नही भइया पैसे के लिए हम नही आए हैं। हम पूछ रहे थे कि क्या कल से एक लीटर दूध और दै जाऊं। मैने कहा क्यों भाई मेरे घर में कोई मेहमान आने वाले हैं क्या। वह बोला नहीं साहब बच्चे बड़े हो रहे हैं कुछ ज्यादा खाना पीना उन्हें मिलना चाहिए। हमने कहा कि यह चिंता हमारी है। वैसे भी अभी हम जितना ले रहे हैं। उसी का पैसा नहीं दे पाते हैं। फिर और अधिक..... वह बोला कोई बात नहीं है। पैसा भागे थोड़े ही जा रही है। मैं परेशान हो उठा आखिर यह लोग आज इतने मेहरबान क्यों हैं। सब्जी वाले को भी मैने टरकाने के लिए कह दिया कि आज कुछ नहीं लेना है, कल आ जाना जो पिछला बकाया होगा दे दूंगा। वह बोला सर पैसे के लिए नहीं आया हूं। मेम साहब कह रही थीं कि आलू प्याज इकट्ठे दस दस किलो दे दूं। मैं वहीं लेकर आया हूं। मैने मन ही मन पत्नी को लताड़ते हुए सोचा कि क्या मायके से मनीआर्डर आने वाला है। (प्रत्यक्ष में) नहीं भाई इतनी सब्जी घर में रखने की जगह भी नहीं है। क्या करूंगा लेकर। फिर इस महीने वैसे भी खर्चे बहुत हैं। सब्जी वाला बोला, सर कोई बात नहीं है मैं बाद मे ले लूंगा। मैने कहा कि क्या बाद में पैसे नहीं देने पड़ेंगे? वह मुस्कराया। मुझे गुस्सा आ गया। मैं उससे लड़ने की हो सोच रहा था कि पत्नी ने मुझें झिंझोड़ते हुए कहा कि आज आफिस जाने का इरादा नहीं है क्या। आज तो आपकी मीटिंग भी है।
मैं नींद से जाग चुका था। पत्नी पर गुस्सा भी आ रहा था कि उसने ऐसी फिजूल की खरीददारी के लिए क्यों कोशिश की साथ ही यह भी कि वह तो मुझे जगा रही है। थोड़ी देर कुछ समझ में नहीं आया । मैं कोशिश करके उठ बैठा और सोचने लगा कि आखिर क्या हो रहा था। अब जान चुका था कि थोड़ी देर पहले जो कुछ मैं देख रहा था वह सपना था। सपने के कुछ शब्द व सीन अब भी दिमाग में घुमड़ रहे थे मैं उन्हें कभी जोड़ने व कभी दिमाग से झटकने की कोशिश कर रहा था। इतने में पत्नी ने चाय के साथ अखबार पक़ड़ाया। अखबार पढ़ते हुए एक बार मैं फिर चकराया। अंदर के पन्ने पर एक खबर छपी थी मंहगाई दर में गिरावट का दौर बना रहेगा। मुद्रा स्फीति शून्य से भी नीचे जा सकती है। ऐसे में सामान तो होगा खरीददार नहीं होंगे। चीजें आपके अनुमान से भी अधिक सस्ती होंगी। ऐसे में खरीददारों की पूछ बढ़ जाएगी। तकनीकी भाषा में इसे मुद्रा अवस्फीति कहा जाएगा। मैने सोचा कहीं मेरा सपना इसी दिन के लिए तो नहीं था। अब घर में मैने कुछ भी न खरीदने का फैसला ले लिया है। उस दिन का इंतजार है जब बिल्डर घर पर आकर कहेंगे कि भइया फ्लैट ले लो। बहुत सस्ता है। एक खरीदोगे तो साथ में एक और फ्लैट मुफ्त मिलेगा। खाने पीने की चीजें तो दुकानो पर लगभग फ्री ही रहेंगी।

November 07, 2008

लोकतंत्र के यज्ञ में गायब आम आदमी

दोस्तों लंबे समय बाद कुछ लिखने की मनःस्थिति बना पाया हूं। ये जो शहर है दिल्ली यहां कुछ लोग पूरे शहर को अपने हिसाब से चलाते हैं जबकि ज्यादातर लोग शहर के हिसाब से चलने को मजबूर होते हैं। यह शहर कई बार आपकी प्राथमिकताओं को बदल देता है। रोज कुछ लिखूं पर यह हो नहीं पाता है।
दिल्ली में इन दिनों राजनीति का मौसम है। पार्टियों द्वारा टिकट का वितरण लगभग पूरा हो चुका है। किसको क्यों टिकट मिला क्यों कट गया इस पर बहुत कुछ अखबारों में लिखा जा चुका है। चैनल दिन रात संतुष्ट व असंतुष्ट नेताओं के चेहरे दिखा रहे हैं। किंतु यदि ध्यान दें तो इस लोकतंत्र के कथित पावन पर्व में नहीं दिख रहा है तो दिल्ली का आम आदमी। आखिर दिल्ली में सरकार बनाने वाले ही इस सरकार के गठन के समय अदृश्य क्यों हैं। नेता अपने तरीके से बता रहे हैं की दिल्ली के लोगों की दिक्कत क्या है। उन्हें क्यों कांग्रेस अथवा भाजपा को वोट नहीं देना चाहिए। नेता ही तय कर रहे हैं कि जनता इस चुनाव में किस आधार पर अपने विधायक को चुने। वास्तव में दिल्ली के लोग दिल्ली की प्रदेश सरकार से क्या चाहते हैं। उन्हें दिल्ली की शीला सरकार से क्या शिकायत थी अथवा आने वाले समय में वे दिल्ली में किसकी कैसी सरकार चाहते हैं। यह न तो किसीको जानने की फुरसत है और न ही जरुरत। लोग भी मीडिया में देख पढ व सुन रहे हैं कि दिल्ली में चुनाव हो रहे हैं किंतु वे खुद को इस चुनाव से कहीं जुड़ा नही महसूस कर रहे हैं। कुछ राजनीतिक कार्यकर्ताओं, सत्ता के दलालों अथवा मीडिया को छोड़ दें तो दिल्ली में कहीं चुनाव को लेकर कोई विचार व मंथन नहीं दिखाई दे रहा है। क्या सही मायने में किसी लोकतांत्रिक सरकार के चुने जाने के समय आम आदमी की यह उदासीनता लोकतंत्र की सफलता पर सवालिया निशान नहीं लगाता है? हो सकता है कि नेताओं को कोई फर्क नहीं पड़े, अफसर भी चुनाव की प्रक्रिया को पूरा कर लें। कोई मुख्यमंत्री तो कोई मंत्री की कुर्सी पर जम जाए। अगले पांच साल तक जनता की मर्जी के नाम पर वे फैसले लेते रहें। लेकिन आखिर कब तक यह सब चलेगा। जब लोगों को इस तंत्र पर भरोसा ही नहीं रह जायेगा तो इस तंत्र की अहमियत भी नहीं रह जाएगी। जिसके चलते सरकारों के फैसलों पर लोग महत्व देना छोड़ देंगे। सरकारों की विश्वसनीयता गिरते ही पूरा लोकतंत्र ढहने की कगार पर पहुंच जाएगा। इस सब के बाद क्या होगा इसका सिर्फ अनुमान लगाया जा सकता है।

July 29, 2008

अफसाना लिख रहा हूं दिले बे (करार) का

हाल ही में एक करार को लेकर विभिन्न मंचों पर हुए ड्रामों का पर्दा गिरने के बाद ग्रीन रूम में भूमिका निभाने वालों से लेकर दर्शकों (जनता) की प्रतिक्रिया खुलकर सामने आने लगी है।जो करार के साथ थे अब वे भी बेकरार हैं तथा जो विरोध में थे वे भी बेकरार हैं। इस एक करार कथा से खबरों की दुनिया में हजारों अफसाने चर्चा में हैं. अफसाना लिख रहा हूं दिले बे (करार) का.
पहला अफसाना हमारी अपनी विरादरी से है.जिनका नारा था खबर हर कीमत पर, उन्होंने करार की स्टिंग को छिपाया किस कीमत पर, सवाल हवा में जवाब नामालुम, इस नारे के प्रतीक जनता में सच्ची खबरों के प्रतीक माने जाने वाले राजदीप सरदेसाई इस बार क्लीन बोल्ड नजर आ रहे हैं. वे हमें बहुत अच्छे लगते थे. जी हां इस घटनाक्रम के पहले तक.जब वे अपने इंटरव्यू में अनिल कपूर की स्टाइल में अमर सिंह से लेकर प्रकाश करात पर सीधे आम आदमी के सवालों को दागते थे तो वे पत्रकार कम आम आदमी के प्रतिनिधि ज्यादा नजर आते थे. हम सभी उनके अंदर खुद को तथा उनकों अपने अंदर पाते थे. लेकिन एक करार कथा ने, न केवल उनकी शख्सियत को धुंधला किया है बल्कि उस नारे को भी अविश्वनीय बना दिया है. उम्मीद है अभी नहीं तो आगे कभी वे इस करार कथा में खुद तथा चैनल की भूमिका पर सफाई जरूर देंगे जो जनता के गले में उतर जाए और फिर से वह पुरानी चमक हासिल कर लेंगे.
दूसरा अफसाना
कल ही दिल्ली में भाजपा के एक विधायक से मुलाकात हुई। बड़े चिंतित थे. पूछा तो कहने लगे कि हमें यह समझ में नहीं आया कि हमारी पार्टी न्यूक्लीयर डील के समर्थन में है अथवा विरोध में.विरोध है तो डील में किस बात का विरोध कर रहे थे.विधायक जी के अनुसार डील का जो होना है वो तो होगा ही आम आदमी में भाजपा की डील इस बीच खराब हो गई. पार्टी कर्नाटका की जीत के बाद दिल्ली में विधानसभा चुनाव को लेकर जितने में उत्साह में थी इस करार कथा ने उस पर पानी फेर दिया. दूसरी ओर कांग्रेस में फिर से संजीवनी का संचार दिखने लगा है.भाजपा के लोग (कुछ बड़े नेताओं को छोड़ दें)इस करारकथा को पार्टी के लिए शुभ नहीं मान रहे हैं. वैसे नेता भी खुश नहीं हैं इसका थोड़ा बहुत अनुमान वे लोग भी लगा सकते हैं जिन्होंने विश्वासमत के बाद लोकसभा में आड़वाणी जी का फोटो टीवी पर देखा होगा.
अफसाना नम्बर तीन है गुरुजी को इन दिनों बुरे बुरे सपने आ रहे हैं। गुरुजी को नहीं जानते अरे वही झारखंड वाले.सपने में शशिनाथ झा का चेहरा देखने के बाद गुरुजी को रात भर नींद नहीं आती है.एक सुबह गुरुजी चेले से कहने लगे ए ससुरे कांग्रेसिए तो चैन की नींद ले रहे हैं पर अपन को मंत्री बनाने का बात लगता है भूल गए. ऊपर से रात में सपने में पुरानी बातें याद आ जाती हैं, नींद नहीं आती. चेला भी खेला खाया था, बोला गुरुजी धीरज रखो, सब ठीक हो जाएगा. यदि कांग्रेस ने मंत्री नहीं बनाया तो, भइल बिआह मोर करिबों क्या.

July 03, 2008

नेता जी का बदल गया है एड्रेस

राजधानी में चुनाव आयोग द्वारा विधानसभा व लोकसभा सीटों का नया परिसीमन लागू हो जाने के बाद अब राजनीतिक दलों व नेताओं ने भी अपनी सीमाओं को पहचानना व बदलना शुरु कर दिया है। एक पार्टी जहां दिल्ली में अपने संगठन का माडल बदलने के लिए नए राजनैतिक जिले गठित कर रही है वहीं तमाम नेता बदले समीकरण के अनुसार अपना निवास भी बदलने लगे हैं. चुनाव व टिकट की राजनीति चाहे जो कराए. एक नेता जी ने बाहरी दिल्ली में बड़े शौक से एक मंहगे मोहल्ले में कुछ साल पहले ही मकान खरीदा था, वे उसी इलाके से चुनाव लड़ने की तैयारी में जुटे थे किंतु परिसीमन ने अब उनके मकान का एड्रेस ऐसे इलाके में जोड़ दिया जो राजनीतिक रूप से नेता जी को मुफीद नहीं दिखता है. अब नेतागीरी तो करनी ही है. यह तो अच्छा है कि नेताजी माल-पानी वाले थे अब उन्होंने उसी इलाके में एक और मकान खरीद लिया जहां से वे चुनाव लड़ना चाहते हैं. पार्टी के कई नेताओं को वे अपना नया घर दिखा चुके हैं ताकि टिकट के समय उन्हें कोई बाहरी आदमी कहकर पत्ता न कटवा दे.अब जिन बेचारों के पास मकान बदलने की स्थिति नहीं है वे मन मसोसकर नए इलाके में खुद के लिए संभावनाएं तलाश रहे हैं. ऐसे में कई छुटभइयों को अब नेतागीरी के लिए अपना नया आका भी तलाशना पड़ रहा है.

June 25, 2008

पालटिक्स वाया बेडरूम

नेतागीरी भी ऐसा नशा है जो छुड़ाए न छूटे. हाल ही में कांग्रेस की एक नेताइन से शहरयार का भी पाला पड़ा. जो नेतागीरी चमकाने के लिए कुछ भी करने को तैयार थीं. नेतागीरी के धंधे में उतरने से पहले वह बच्चों का चाल चरित्र सुधारने का काम करती थी. मतलब वो मास्टराइन थीं.
दिल्ली कैंट बोर्ड का हाल ही में चुनाव हुआ. चुनाव के पहले से वह टिकट के लिए तैयारी में जुट गईं. बड़े नेताओं ने भी उन्हें टिकट का वायदा कर दिया.(ऐसा नेताइन का दावा था).ऐन मौके पर जहां से नेताइन चुनाव लड़ना चाहती थी किसी और सुंदरी का टिकट पक्का हो गया. नेताइन को तो काटो तो खून नहीं. दिन रात पूरे इलाके में पसीना वह बहाती रहीं टिकट मिल गया किसी अनाम सी सुंदरी को. नेताइन ने बताया कि एक पूर्व पार्षद जो अपनी पत्नी को भी टिकट नहीं दिला पाए थे कैंट के चुनाव में अध्यछ जी के लटक बनकर खूब हेरफेर कराया. उन्होंने ही पहले महिला से दोस्ती गांठी फिर मेरा टिकट काटकर उस महिला को टिकट दिलवा दिया. लेकिन ऊपरवाले का करम तकनीकी कारणों से नव सुंदरी का परचा खारिज हो गया. बात में इन्हीं नेताइन को टिकट मिला किंतु वे चुनाव हार गईं. नेताइन के अनुसार उक्त पार्षद व उसकी चहेती महिला के कारण वह चुनाव हारी हैं. अब उन्हें बदला लेना है. जब शहरयार ने पूछा कि वह बदला कैसे लेंगी, तो नेताइन के कहा कि लोहे को लोहा काटता है. मैं भी अब त्रिया चरित्र का इस्तेमाल करुंगी. जब राजनीति में घुसने का रास्ता बेडरूम से होकर जाता है तो मैं भी बड़े नेताओं के बेडरुम में घुसने को तैयार हूं. अध्यछ जी सुन रहे हो इस महिला का किसी समर्थक से उद्धार कराओ.

June 23, 2008

तुगलकी चाल

दिल्ली में बाढ़ से निपटने को तैयारी पूरी, दिल्ली देहात के तालाबों को पक्का कराने पर करोड़ो खर्च, नलकूप से भरा जाएगा तालाबों में पानी.ऐसी खबरें पढ़कर लगता है कि सरकार वाकई में बड़ी मुस्तैद है. लेकिन गौर करने पर मामला कुछ और ही नजर आता है.जिस शहर में पीने को पानी न हो वहां बाढ़ व तालाब के नाम पर करोड़ो रुपए बहाना केवल तुगलक के राज्य में संभव था या कि इक्कीसवीं सदी में कांग्रेस के राज में.
जीं हां कांग्रेसी सरकार इन दिनों ऐसी समस्याओं से जूझ रही है जो कि है ही नहीं.अलबत्ता समस्याएं दिखाकर कुछ लोग अपना हित साधन जरुर कर रहे हैं. दिल्ली में बाढ़ की तैयारियों को खबर तो अभी ताजा है.दिल्ली की बरसात का हाल तो सभी को मालुम है. यहां होने वाली कुल बारिश से धान की फसल तक उगाना संभव नहीं है.सीवर व नालियों की वर्षों से सफाई नहीं होने के कारण सड़क पर जमा होने वाले पानी को छोड़ दें तो कहीं भी दिल्ली में बारिश से संकट नहीं है. यहां तो इतनी भी बारिश नहीं होती की ताल तलैया भी भर सके. हां सरकार है तो जनकल्याण वाले विभाग भी होंगे और बजट भी. ऐसे बाढ़ व सूखा राहत ऐसा कार्य है जिसमें नेता व अफसर अक्सर हरे भरे हो जाते हैं. सो दिल्ली में बाढ़ से निपटने की तैयारियां शुरु हो गई है शायद कुछ बजट भी जारी हो गया हो.अब जिस प्रदेश (जी हां दिल्ली इक शहर ही नहीं राज्य भी है)में बारिश से खेतों में पलेवा भी नहीं लगाया जा सकता हो वहां तालाबों में पानी कहां से आएगा.फिलहाल जनकल्याणकारी सरकार ने पिछले एक साल में दिल्ली में तालाबों की खुदाई व पुनुरुद्धार के नाम पर करोड़ो रुपए खर्च कर चुकी है. तालाबों के चारो ओर संगमरर के पत्थर लगाकर उन्हें खूबसूरती प्रदान की गई. इस सब पर बीस लाख से लेकर एक करोड़ रुपए तक प्रति तालाब खर्च किया गया.एक तो बारिश का अभाव ऊपर से चारो ओर से तालाब को ऊंचा कर पक्का कर दिए जाने से तालाबों में बारिश का पानी जाने का कोई रास्ता भी नहीं दिया गया.तालाब बनने के बाद उद् घाटन के समय नेताओं ने भी पूरा श्रेय लिया. अब जब बारिश का मौसम आया तो योजना बनाने वाले अधिकारी बता रहे हैं कि तालाबों को भरने के लिए नलकूप लगाया जाएगा. अरे भइया जब जमीन में पानी ही नहीं है और उसे दुरुस्त करने के लिए ही तालाबों को रिचार्ज सोर्स बनाया जा रहा है तो जमीन का पानी निकाल कर तालाब में डालने का औचित्य क्या है.

June 19, 2008

पेट की आग



दिल्ली की एक झोपड़पट्टी में आग लगने पर सबकुछ स्वाह हो गया. दमकल की बौछारों के बीच पेट की आग बुझाने के लिए चूल्हे पर से खाने की डेगची उतारता बेचारा !

June 17, 2008

नेता जी की साली से विधायकजी ने दिल लगाया

कांग्रेस में चमचागीरी की पुरानी परंपरा है.चमचागीरी के चक्कर में कांग्रेस के एक राष्ट्रीय महासचिव ने दिल्ली के एक विधायक को अपना मानस पुत्र बना लिया. कांग्रेस आलाकमान के दाहिने हाथ माने जाने वाले भारीभरक कद वाले इस नेता के घर विधायक बराबर का आना जाना था. बड़े नेता अक्सर व्यस्त रहते थे इसलिए घर की कुछ जिम्मेदारियां यह विधायक स्वेच्छा से उठाने लगे. इस बहाने नेताजी के घर में उनकी अच्छी पैठ बन गई. यहां तक तो ठीक था किंतु आका की सेवा करते-करते विधायक जी का दिल घर की एक सुंदरी पर आ गया।
यह सुंदरी कोई और नहीं बड़े नेता जी की साली साहिबा हैं.इन्हें विधायक जी कई बार मानस पुत्र के नाते यहां वहां ले आते जाते रहे हैं. जब तक इश्क चलता रहा लोगों ने ज्यादा कान नहीं दिया किंतु पहले से शादीशुदा विधायक जी को महासचिव की साली इतनी पसंद आई कि वह उससे शादी करने का ख्वाब पालने लगे. विधायक जी जो कभी कांग्रेसी दिग्गज नेता को पिता तुल्य तथा उनकी पत्नी को मातृवत मानते थे वे अब मौसी तुल्य उन्ही नेता की साली को पत्नी बनाना चाहते थे. एक तो विधायक व युवती का अलग-अलग धरम ऊपर से बेटा बन घर में सेंध लगाने का यह रवैया नेताजी को पसंद नहीं आया, लिहाजा कभी इन्हीं नेता के नाम का रुआब गांठने वाले विधायक को घर में इंट्री बंद हो गई है. अब आगामी चुनाव के मद्देनजर विधायक के टिकट पर भी संकट के बादल मंडराने लगे हैं. इन दिनों कांग्रेसियों में बेटा बन नेता की साली पर लाइन मारने वाले इन विधायक महोदय की चरचा आम है.