December 10, 2009

दूर देश से आई ..............एक परी


गुरुवार (12नवंबर) को जब मैं घर से दफ्तर की ओर जा रहा था तो मोबाइल की घटी बजी। मुझे नया नम्बर था, सड़क पर काफी भीड़भाड़ थी सोचा फोन न उठाऊं क्योंक गाड़ी चलाने में काफी परेशानी हो रही थी। फिर फोन करने वाले के बारे में जानने के गरज से मैने फोन उठा लिया। कोई उबैदुल अलीम साहब बोल रहे थे। पहले उन्होंने बताया कि कहां से उन्होंने मेरा नम्बर हासिल किया। फिर कहने लगे कि एक विदेशी महिला ने एक किताब लिखी है वे आपके अखबार में अपनी पुस्तक की समीक्षा छपवाना चाहती हैं। अलीम साहब ने बताया कि यद्यपि उस पुस्तक के बारे में दिल्ली के सभी अंग्रेजी अखबारों ने बहुत कुछ लिख दिया है लेकिन विदेशी लेखिका की इच्छा है कि पुस्तक के बारे में स्थानीय भाषा के अखबारों में भी कोई खबर होनी चाहिए। किसी विदेशी महिला का स्थानीय भाषा के अखबार में अपने काम को छपवाने जैसा अनुरोध का मामला मेरे लिए कुछ अलगा सी घटना थी। अतः मैने कहा कि मैं खुद आ जाऊंगा आप दिन में दो बजे कहीं मिल जाइए। फिर यह भी तय हुआ कि हम लोग क्नाट प्लेस के निकट बाराखंभा स्थित आक्सफोर्ड बुक स्टोर पर मिलते हैं।
आक्सफोर्ड स्टोर तक पहुंचने के पहले मेरे मन में सिर्फ एक ही कौतुहल था कि वह विदेशी महिला अपने काम को हिंदी पाठकों तक क्यों पहुंचाना चाहती है। प्रायः ऐसा होता नहीं है। बुक स्टोर में पहुंचा तो मैने सबसे पहले उबैदुल साहब को फोन लगाया क्योंकि मैं उन्हें भी नहीं पहचानता था। वे पास ही स्थित एक टेबल पर बैठे थे उठकर मुख्य गेट पर आए हम लोग अंदर स्टार के साथ बने लाउंज में पहुंच गए। आक्सफोर्ड स्टोर का यह हिस्सा काफी बार सा था। लोग बैठे काफी स्नैक्स के साथ बातचीत में मशगूल थे। वहां एक टेबिल पर एक विदेशी युवती बैठी थी उसेस उबैदुल साहब ने हमारा परिचय कराया। मेरा साथ एक सहयोगी पत्रकार व फोटोग्राफर भी था। युवती ने गर्मजोशी से हाथ मिलाते हुए अपना नाम बताया। उससे मैने हाथ तो मिला लिया लेकिन अमेरिकी लहजे में अंग्रेजी बोलने के कारण, उसका नाम क्या है, यह मेरी समझ में नहीं आया। उसने बताया कि वह ब्राजील से है। यहां इंडिया में पिछले छह महीने से रही रही है। उसने अपना विजटिंग कार्ड दिया। जिस पर उसका नाम लिखा था, कांसीसाओ प्राउन (Conceicao Praun)। वह दक्षिणी अमेरिका स्थित ब्राजील के सबसे पड़े शहर साओ पाउलो की निवासी हैं। प्राउन ने बताया कि वह आठ साल पहले जब भारत पहली बार अपनी मां के साथ आई थीं तो भारत में लोगों द्वारा जगह जगह गंदगी फैलाने तथा उन्हीं गंदगी के बीच कुछ लोगों द्वारा अपने लिए रोजी रोटी ढूंढते देखा था। यह सब उन्हों बहुत अजीब लगता था।
प्राउन खुद को सोशल कल्चरल वर्कर मानती हैं। ऐसा उन्होंने अपने विजिटिंग कार्ड में भी लिखा है। पहली नजर में मुझे लगा कि यह लड़की भी हमारे देश की उन महिलाओं की तरह है जो भरे पेट होने पर अपना खाली समय काटने के लिए दुनिया व समाज की सेवा का काम केवल इसलिए शुरु कर देती हैं क्योंकि समय बिताने के लिए इससे अच्छा कोई काम नहीं मिल पाता है। मैने इस विदेशी बाला से पूछा कि वह भारत में क्या करने आई थीं। पाउलों ने बताया कि वह यहां योग सीखने आई थीं। वे भारत को अच्छी तरह देखना चाहती थीं। इसी क्रम में वे विभन्न शहरों में घूमती रहीं है। इसी घुम्मकड़ी के दौरान प्राउन ने एक बार फिर उन तत्वों को देखना शुरु किया जो पर्यावरण को गंदा कर रहे हैं। इस बार वे इस मुद्दे पर कुछ करने के लिहाज से जिन भी शहरों में गई वहां पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने तथा उसे सुधारने वाले कामों को अपने कैमरे में कैद करने लगीं। बाद में इन्ही चित्रों को उन्होंने एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित कराया। वे इसी किताब के बारे में दैनिक जागरण में खबर छपवाना चाहती थी ताकि यहां की आम जनता को पता चले कि वह अपने किन-किन कामों से पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहे हैं। इस पुस्तक में जल, वायु तथा धरती को होने वाले नुकसान पर विस्तृत चित्र कथाएं कहानी है।
कांसीसाओ प्राउन एक गंभीर विचार वाली युवती थी वह जानती थी कि मेरे इस काम को कहीं भारत के प्रति मेरा नजरिया न मान लिया जाए इसीलिए कहती हैं कि मैंने पुस्तक में भारतीय शहरों के चित्रों को अपना विषय बनाया यह सिर्फ संयोग है क्योंकि में इन दिनों भारत में रही रही हूं। लेकिन प्रकृति के प्रति मनुष्य का नकारात्मक व्यवहार पूरी दुनियां में दिखायी देता है। वे इस बात से दुखी हैं कि ‘‘हम हवा, पानी व धरती से जितना पाते हें उसका एक अंश भी उसके संरक्षण के लिए नहीं खर्च करना चाहते हैं। यह सब देखकर मुझे अपने कंधों पर एक बोझ महसूस होता है। इसीलिए पुस्तक लिखकर मैं कुछ लोगों को इस दिशा में जागरूक करना चाहती हैं।’’

मैने पूछ आपके देश ब्राजील को किस लिए दुनिया में जाना जाता है। वे बोली शायद गन्ना, फुटबाल व एथनाल के लिए। एथनाल गन्ने से बनने वाला एक बायो फ्यूल है जिसे भारत में भी पेट्रोल के साथ मिलाकर ईंधन के रूप में प्रयोग किया जा रहा है। मैने कहा कि आपके देश को कार्निवाल के लिए भी जाना जाता है। प्राउन मेरी बात से कुछ असहज लगीं। और कहा वह सिर्फ एक शहर रियो डी जनेरियो का आयोजन है। मेरे यह कहने पर कि ब्राजीलियन टूरिज्म डिपार्टमेंट इस कार्निवाल को ब्राजील की सांस्कृतिक धरोहर की तरह प्रचारित करता है। इस पर पाउलों कुछ असहज दिखीं और कहा कि मैं इस प्रश्न का उत्तर नहीं देना चाहती। थोड़ा रुककर उन्होंने कहा कि सच यह है कि रियो डी जनेरियो शहर में होने वाला यह कार्निवाल समाज के ऐसे तबके द्वारा आयोजित किया जाता है जो ब्राजील का संभ्रांत वर्ग नहीं है। इसमें हिस्सा लेने वाले अधिकांश लोग वहां पर बैंड कारोबार से जुड़े लोग हैं। कार्निवाल में शामिल महिलाएं भी उन्हीं से जुड़ी होती हैं। वे मानती हैं कि पूरी दुनिया में कार्निवाल को जिस तरह से प्रचारित किया जाता है उससे ब्राजीलियन युवतियों के प्रति लोगों में गलत छवि बनती है।
प्राउन भारत से वापस जाकर यहां की जो छवि लेकर जाएंगी वह कार्निवाल के प्रति दुनिया की नजर से भी ज्यादा खतरनाक है। हम भारतवासी अपनी धरती, हवा व जल स्रोतों के प्रति आखिर कब तक जागरूक होंगे। जो बातें दूर देश से आई एक युवती इतने गौर से देखती है उसे हम कब तक अनदेखा करते रहेंगे।
प्राउन का प्रकृति प्रेम उनके उस बिजिटिंग कार्ड पर भी दिखता है, जिस पर अंग्रेजी में लिखा था, for approximately 50 kg. of paper one tree has been sacrificed.

September 07, 2009

पर मेरी सरकार इन्हें रखोगे कहां

इन्हें पकड़ भी लोगे तो कहां रखोगे, क्योंकि दिल्ली में साठ हजार है इनकी आबादी


मुझे नहीं मालूम कि पेरिस में भिखारी होते हैं या नहीं, लेकिन दिल्ली को पेरिस बनाने में जुटीं मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के एक काबीना मंत्री ने घोषणा की है कि शहर को भिखमंगों से मुक्त (बेगर्स फ्री) करेंगे। इसके लिए मोबाइल कोर्ट सहित न जाने क्या-क्या इंतजाम करने की भी घोषणा की गई। सरकारी आंकड़ों व संसाधनों पर नजर डालें तो लगता है कि मंत्री जी शेखचिल्ली की तरह शहर को बना रहे हैं। राजधानी में इस समय 60 हजार भिखारी हैं। कानूनन सरकार ऐसे लोगों को भीख मांगते समय पकड़कर बेगर्स होम में रख सकती है। जहां उन्हें प्रशिक्षित कर कामकाज लायक बनाया जा सके। बच्चे हैं तो उन्हें पढ़ाने की व्यवस्था भी करनी होगी। दिल्ली में ऐसे कुल 11 होम्स हैं जहां भिखारियों को रखा जा सकता है। इन होम्स की कुल क्षमता 2200 लोगों के रहने की है। अब साठ हजार भिखारियों से दिल्ली को समाज कल्याण विभाग कैसे मुक्त कराएगा। इसकी न तो कोई योजना है और न ही कोई विधिक तरीका। यदि इनमें से आधे भी सरकारी मशीनरी की पकड़ में आ गए तो उन्हें कहां रखेंगे। कैसे प्रशिक्षण देंगे। कोई तैयारी नहीं। विभाग के एक अफसर से इस समस्या के बारे में पूछा तो उन्होंने पहले तो कहा कि सरकार ने पूरी व्यवस्था कर ली है। लेकिन बाद में योजना का खुलासा करने को कहा तो बोले कि देखो भाई जब तक दिल्ली में दान-पुण्य करने वाले रहेंगे तब तक भिखारी भी रहेंगे। यदि रोकना है तो पहले भीख देने वालों पर कार्रवाई होनी चाहिए और ऐसा कोई सरकार करेगी नहीं। जहां तक भिखारियों को दिल्ली से हटाने की बात है तो सच यह है कि सारी कोशिश यह होगी कि चौराहों पर भीख मांगने वाले न दिखाई दें। उसके लिए पुलिस की मदद से विभाग काम करेगा। मंदिर व मस्जिदों के बाहर तो उन्हें हटाना संभव नहीं है। अब भीख मांगना केवल मजबूरी नहीं है यह बाकायदा धंधा है। ऐसे लोगों को रोक पाना संभव नहीं होगा। जहां तक भिखारियों को बेगर्स होम्स में रखे जाने की बात है तो जो सरकार कामनवेल्थ के नाम पर भिखारियों को हटाने की बात कर रही है। वही सरकार जब खिलाडि़यों व खेल प्रेमियों के रहने के लिए पर्याप्त व्यवस्था नहीं कर पा रही है तो भिखारियों के लिए कितना इंतजाम करेगी यह सोचना ही फिजूल है।

September 04, 2009

न ग्लैमर न पैसा, फिर चुनाव कैसा

हवा में उड़े यही पम्पलेट बने छात्र नेताओं के जी के जंजाल


लका लांबा, रागिनी नायक, अमृता धवन, अमृता बाहरी, नूपुर ये नाम उन सुंदरियों के हैं जो पिछले कुछ सालों में दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ चुनाव में छाई रहीं। ग्लैमर व अकूत पैसे के सहारे छात्र राजनीति पर कब्जा करने की यह होड़ पिछले साल तक छाई रही। छात्र राजनीति से दूर-दूर तक रिश्ता न होने के बावजूद तमाम छुटभैए नेता इस मौसम में नजारे लेने के लिए कैंपस में चक्कर लगाते देखे जाते थे लेकिन लगता है इस बार उन्हें निराशा हाथ लगेगी। संगठनों ने जहां इस बार सुंदरियों पर दांव लगाने से कुछ परहेज किया वहीं आचार संहिता के नाम पर कई धनबली संभावित उम्मीदवार मैदान के बाहर खड़े कर दिए गए। यद्यपि विश्वविद्यालय प्रशासन की पूरी कार्रवाई बेहद संदेहास्पद है फिर भी छात्र राजनीति में पैसे के बूते सिक्का चलाने वालों के खिलाफ कार्रवाई स्वागत योग्य है। दीपक नेगी कभी विद्यार्थी परिषद से जुड़े रहे लेकिन कहते हैं कि पैसे में बड़ा दम होता है। इस बार एनएसयूआई ने उन्हें अध्यक्ष पद पर चुनाव लड़ाने का फैसला लिया था। चुनाव के लिए नामांकन के समय उन्होंने अपने पैसे का दम लोगों को जमकर दिखाया भी, लेकिन यहीं गलती हो गई। पिछली बार ऐसी ही गलती करने वाले कुछ छात्र नेता बच गए थे लेकिन इस बार न केवल नेगी बल्कि एबीबीपी के अध्यक्ष पद के उम्मीदवार रोहित चहल सहित सात लोगों को चुनाव लड़ने से वंचित कर दिया गया। इन सभी पर आरोप लगा है कि उन्होंने लिंगदोह कमेटी की सिफारिशों का उल्लंघन करते हुए नामांकन के समय छपे हुए पंपलेट कैंपस में बंटवाए। यह बाहुबली व धनबली ही नहीं बल्कि नियमों के उल्लंघन के मामले में एनएसयूआई की बागी प्रत्याशी अनुराधा का पत्ता कट गया। एनएसयूआई ने अर्शदीप कौर को सचिव का टिकट दिया है। एबीवीपी से भी इस बार अध्यक्ष पद के लिए एक सुंदरी ने चुनाव लड़ने के लिए नामांकन किया था। साक्षी अरोरा नाम की इस सुकन्या को रोहित चहल की पहुंच के आगे हार माननी पड़ी। विद्यार्थी परिषद किसी अन्य पद के लिए साक्षी को टिकट देने को तैयार था किंतु वह अध्यक्ष के टिकट से नीचे तैयार न हुई। अब चौधरी का भी पत्ता कट गया तो लगता है कि किसी तीसरे के ही भाग्य से छींका टूटा है। हर साल डीयू के इस चुनावी मुलम्मे में मजा लूटने वाले लोगों को कुछ निराशा जरूर हो सकती है। क्योंकि प्रचार के नाम पर रोज लाखों खर्च करने वाले प्रत्याशी न होंगे और आंख सेंकने के लिए ग्लैमर भी न होगा तो चुनाव क्या खाक जमेगा। डीयू जेएनयू तो है नहीं कि यहां बौद्धिक बहसें होंगी। यहां तो वे सारे दांव आजमाए जाते हैं जो राजनीति के अखाड़े में आजमाए जा चुके हैं। जैसे शहरी व देहात का मुद्दा। स्थानीय व बाहरी का मुद्दा। जाट व गुर्जर का मुद्दा। अगर यहां कोई चर्चा नहीं होती है तो वह है छात्र हित व पढ़ने-पढ़ाने की। दिल्ली की राजनीति में सीधी इंट्री दिलाने वाले डीयू छात्रसंघ का चुनाव इतना सात्विक होगा तो पार्टियों को वैसे दमदार नेता कैसे मिलेंगे जिनकी आजकल काफी डिमांड रहती है। पढ़ाकू टाइप का कोई छात्र चुनाव जीत भी गया तो भाई लोग उसे राजनीति में ले जाकर क्या करेंगे। निश्चय ही यह हमारे राजनेताओं व चुनाव के दिनों मुफ्त दारू-बोटी उड़ाने वालों के लिए चिंता का विषय हो सकता है लेकिन उन छात्रों को कुछ सुकून मिल सकेगा जो चुनाव की हर साल होने वाली धींगामुश्ती से परेशान रहते हैं। लिंगदोह कमेटी की रिपोर्ट को तीन साल बाद ही सही, ठीक ढंग से लागू करने के लिए प्रशासन को बधाई।

August 26, 2009

अफसर उवाच। सारी गलती इंद्र देव की

एक दिन की बारिश में सड़के बनी नाला, नेता व अफसर कर रहे हैं चिकचिक


राजधानी दिल्ली में पैसा है, रुतबा है लेकिन यदि नहीं दिखता तो सुखी व खुशहाल समाज। जिनके पास नहीं है उन्हें हर हाल में चाहिए चाहे जो करना पड़े और जिनके पास है उन्हें और चाहिए। दिल्ली के लोगों का यही जीवन दर्शन बनता जा रहा है। पिछले एक हफ्ते में शहर की गतिविधियों पर नजर डालें तो लगता ही नहीं कि यहां कुछ ऐसा हो रहा है जो पुरसुकून हो। पिछले हफ्ते जब मैं यह कालम लिख रहा था तो रिमझिम फुहारों के बीच लालकिले पर प्रधानमंत्री का भाषण चल रहा था। उन्होंने समस्याओं के अंबार के बीच ढेर सारी उम्मीदों की रोशनी बिखेरी। लगता था अपनी दिल्ली भी अब खुश रहेगी। ज्यादा न सही दो चार हफ्ते प्रधानमंत्री के भाषण का असर होने की तो उम्मीद थी ही लेकिन ऐसा हो न सका। शनिवार के भाषण के बाद सोमवार को सेंसेक्स छह सौ अंक से भी अधिक नीचे औंधे मुंह गिर गया। पैसे से पैसा बनाने वाले भाई लोग टेंशन में आ गए। दूसरी ओर सड़क पर लोगों का आटो वालों ने पसीना निकाल दिया। शहर में आटो वालों की हड़ताल व गुंडागर्दी दो दिन तक बेरोकटोक चलती रही। यद्यपि अपने सरदार जी ने टेंपो वालों को हड़काकर थोड़ा उम्मीद बंधाई कि पब्लिक की न सुनने वाले आटो वालों की भी नहीं सुनी जाएगी। अभी इस समस्या से निपटे भी न थे कि बारिश से कुछ धीमे पड़े स्वाइन फ्लू ने राजधानी में पहली बार किसी की जान ले ली। देश में भले ही इस बीमारी से मरने वालों का आंकड़ा पचास के आसपास पहुंचने वाला था लेकिन दिल्ली में यह पहली मौत थी। लोग फिर से इस विदेशी बीमारी से सहम गए। स्कूलों को कहा गया कि वे बच्चों से प्रेयर न कराएं। दुख में प्रभु का सुमिरन करने वाले देसी मन मानस को यह फैसला कुछ हजम नहीं हुआ लेकिन बच्चों की सुरक्षा की बात थी कुछ स्कूलों ने सरकार की बात मानी और सुबह की प्रेयर बंद हो गई। शुक्रवार का दिन फिर शहर वालों पर भारी पड़ा। इंद्रदेवता मेहरबान हुए और दोपहर बाद जमकर बारिश हुई। होना तो यह चाहिए था कि लोग खुश होते। इस बारिश ने जहां गर्मी से राहत दिलाई वहीं किसी हद तक किसानों व खेती के लिए भी यह फायदेमंद हो सकती है। लेकिन यहां तो दफ्तरों में दिनभर देश का भविष्य बांचने वाले बाबू लोग जब शाम को घर के लिए निकले तो चहुंओर पानी व ट्रैफिक का रेला। प्रतिदिन पीक आवर में रेंगने वाला ट्रैफिक बारिश के चलते थम सा गया था। ऐरों गैरों की तो छोड़ो राहुल बाबा तक को मेट्रो का सहारा लेना पड़ा। आधे घंटे की बरसात का पानी न जाने कहां-कहां घुस गया लेकिन जिन नालों व नालियों में घुसना था वहां का रास्ता बंद मिला। नाले व नालियों के नाम पर करोड़ों डकारने वाले अफसरों ने समस्या को जानने के लिए बैठक की। सबने मिलकर यह निष्कर्ष निकाला कि गलती किसी विभाग व अफसर की नहीं बल्कि इंद्रदेवता की है। भला इतनी जोर से बरसने की क्या जरूरत? आराम से रिमझिम-रिमझिम रात भर बारिश होती और सुबह दफ्तर के टाइम बारिश बंद हो जाती तो किसी को दिक्कत नहीं आती। अब बाबुओं की यह रिपोर्ट इंद्र देवता तक कैसे पहुंचे मालुम नहीं।

August 03, 2009

और चकरू गए चकराय

वि सम्मेलनों में अपनी वाकपटुता से बड़े बड़ों को धराशायी कर देने वाले प्रसिद्ध हास्य कवि अशोक चक्रधर हिंदी अकादमी में पहुंचकर खुद ही चकरा गए हैं। उन्हें अपनों ने ही अचानक जता दिया कि वे हिंदी साहित्यकारों की बिरादरी में ओबीसी की हैसियत रखते हैं। उन्होंने भले ही मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की निकटता व कांग्रेस के लिए चुनाव में नारे लिखकर अकादमी में उपाध्यक्ष की कुर्सी हथिया ली हो, लेकिन साहित्य बिरादरी के कुछ लोग उन्हें साहित्यकार मानने को ही तैयार नहीं है। अशोक जी ने जब से यह सुना है कि हिंदी के साहित्यकार उन्हें बिरादरी का मानते ही नहीं है, वे सन्न हैं। अब न वे मुंह खोल रहे हैं और न कुछ बोल रहे हैं। हुआ कुछ यूं कि कुछ दिन पहले जब दिल्ली सरकार ने उन्हें हिंदी अकादमी का उपाध्यक्ष मनोनीत किया तो वे अपने स्वभाव के अनुसार कुछ स्थानों पर चहकते हुए गंभीर साहित्य व मंचीय साहित्य पर कुछ बोल गए। क्या बोला क्यों बोला यह तो जगजाहिर नहीं हुआ लेकिन दिल्ली सरकार की ओर से अकादमी संचालन समिति में मनोनीत तमाम सदस्य साहित्यकारों ने उन्हें आड़े हाथों ले लिया। सिर मुंडाते ओले पड़े वाली कहावत हुई। उपाध्यक्ष बनने के बाद अभी तो कोई बैठक भी नहीं हुई थी। सदस्यों के साथ उपाध्यक्ष की औपचारिक मुलाकात भी नहीं हुई कि अकादमी में वितंडा खड़ा हो गया। चर्चित साहित्यकार अर्चना वर्मा ने अकादमी के संचालन समिति से इस्तीफा दे दिया। उनके कुछ दिन बाद अकादमी के सचिव व साहित्यकार ज्योतिष जोशी ने भी इस्तीफा दे दिया। कभी अशोक चक्रधर के गुरु रह चुके वरिष्ठ साहित्यकार नित्यानंद तिवारी ने भी अकादमी से नाता तोड़ने की घोषणा कर दी। साहित्य जगत में अशोक चक्रधर से नाराज साहित्यकारों का खुला आरोप है कि अशोक चक्रधर को कांग्रेस की सेवा करने के फलस्वरूप अकादमी में उपाध्यक्ष पद मिला है। वे अब अकादमी को भी राजनीति का अड्डा बना देंगे। उधर इन हमलों से चकराए अशोक चक्रधर का कहना है कि अभी तो हमने कुछ किया ही नहीं। चकरू (अशोक चक्रधर का उपनाम) खुलकर पूरे प्रकरण पर कुछ बोलने को तैयार नहीं है। चकरू भले ही अपनी राजनैतिक वफादारी व इनाम पर कुछ भी सार्वजनिक रूप से बोलने को तैयार न हो लेकिन उनके विरोधी जमकर हमले कर रहे हैं। चकरू के विरोधी हैं तो कुछ साहित्यकार उनका समर्थन भी कर रहे हैं लेकिन मंचीय व गंभीर साहित्य की धारा के बीच राजनीति की पेंच के चलते कोई खुलकर उनके समर्थन में नहीं आना चाह रहा है। उधर चकरू सिर झुकाकर इस तूफान के गुजरने का इंतजार कर रहे हैं। ताजा हालात पर उनकी ही एक कविता यहां मौजूं है।
कह चकरू चकराय, अक्ल, क्या कहती।
नहीं प्रशंसा, निंदा ही है जिंदा रहती।

July 14, 2009

अर्थशास्त्र के नियमों से चलते हैं महानगरीय रिश्ते

निवार की सुबह उठकर हर रोज की तरह सबसे पहले अखबार देखने बैठ गया। अपराध की खबरों से भरे पन्नों पर नजर दौड़ाता रहा। मन में कुछ चटखने सा लगा। अखबारों में अपराध की खबरों का होना कोई नई बात नहीं थी, लेकिन शनिवार के अखबारों में ज्यादातर खबरें रिश्तों के कत्ल व भरोसे के खून से सराबोर थीं। राजौरी गार्डन में पत्नी ने पति का कत्ल करा दिया। महिला ने पति की हत्या के लिए अपने नए प्रेमी को ही पांच लाख की सुपारी दी थी। दूसरी खबर थी कि एक युवक ने अपनी नानी की हत्या इसलिए कर दी कि उसने गर्लफ्रेंड को घुमाने के लिए पैसे नहीं दिए। तीसरी खबर ईस्ट पटेल नगर में छात्रा की मौत के खुलासे से संबंधित थी। छात्रा की मौत उसके प्रेमी ने ही की थी क्योंकि उसे शक था कि वह लड़की अब किसी और के प्यार में पड़ गई है। कुछ पैसों के लेन-देन में दक्षिणी दिल्ली में एक युवक ने अपने बचपन के दोस्त को चाकू से गोदकर हत्या कर दी। भागते समय तीसरी मंजिल से गिरने के कारण वह खुद भी जान गंवा बैठा। महानगरीय जिंदगी में रिश्ते इतने कमजोर क्यूं हो रहे हैं। इस बारे में जानने के लिए दिनभर परेशान रहा। कई लोगों से पूछा। कई किताबों के पन्ने पलटे। सब कुछ करने के बाद जो समझ में आया यदि उसका निचोड़ निकालें तो सिर्फ यही कहा जा सकता है कि कभी मानवीय रिश्ते समाजशास्त्र के नियमों से चलते थे, लेकिन अब ये रिश्ते अर्थशास्त्र के नियमों पर बनने लगे हैं। रिश्तों में हो रहे बदलाव हमें अभी भी इसलिए चौंकाते हैं कि उन्हें आज भी समाजशास्त्र की कसौटी पर परखते हैं। ठीक अर्थशास्त्र के नियम की तरह रिश्ते अब त्याग के बजाय मांग पर आधारित हो गए हैं। इनका बने रहना भी हानि-लाभ के सिद्धांतों के अनुसार तय होने लगा है। इग्नू में जेनेटिक इंजीनियरिंग के प्रोफेसर हिमाद्रि राजधानी के इस सामाजिक बदलाव पर सटीक टिप्पणी करते हैं कि दिल्ली ने दो दशक में काफी तेज विकास किया है। विकास में सबसे अहम पैमाना धन का होता है। सफल व्यक्ति रिश्तों से अधिक अहमियत धन को देता है। आर्थिक दौड़ में शामिल लोगों के लिए रिश्तों की उलझन को निभाना बहुत तनावपूर्ण हो जाता है, लेकिन वे इस बदलाव को स्थायी नहीं मानते। उनके अनुसार भविष्य में फिर से रिश्तों को महत्व मिलेगा, लेकिन कब तक-इस बारे में अभी से अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है। प्रमुख समाजवैज्ञानिक अरुणा ब्रूटा भी मानती हैं कि महानगरीय समाज विकास की दौड़ में बने रहने के लिए बीमार बन गया है। भौतिकता का चरम व्यक्ति के व्यवहार तथा सोच को प्रभावित कर रही है, लेकिन लोगों का ध्यान अभी इस बीमारी की ओर नहीं जा रहा है। इसलिए हम इसके प्रति अभी भी सावधान नहीं हैं। महानगरीय जीवन में आने के बाद जब लोगों ने घर-बार छोड़ा तो कहा जाने लगा कि खून के रिश्ते से भी बेहतर होते हैं प्यार के रिश्ते। कुछ समय तक यह बहुत अच्छा निभा भी, लेकिन अब तरक्की की दौड़ में यह रिश्ते भी कलंकित होने लगे हैं। दोस्त व प्रेमी-प्रेमिकाओं की हत्याओं का सिलसिला इसी का नतीजा है। शारीरिक व भौतिक जरूरतों को पूरा कर पाने में असमर्थ हर रिश्ते टूटने के कगार पर खड़े नजर आते हैं। जो रिश्ते बाहर से बहुत मजबूत दिखते हैं, गहरे में उन्हें भी कहीं न कही आर्थिक व शारीरिक जरूरतों का मजबूत सहारा है। किसी कवि की ये लाइनें यहां मौजूं हैं- बाजार में बिकते हैं, हर मोल नए रिश्ते। कुछ वक्त लगा हमको, ये दिल को बताने में।

June 28, 2009

माननीयों को 'दूध घी' पर जनता को नसीब नहीं पानी

देश के अन्य राज्यों की भांति अब राजधानी के जनप्रतिनिधि भी चल पड़े हैं। उन्हें भी जनता के बीच जाने से डर लगने लगा है। इसलिए अब उन्हें चाहिए परमानेंट पुलिस सुरक्षा। पुलिस सुरक्षा के साथ वे लालबत्ती लगी गाड़ी की भी मांग रखने लगे हैं। दिल्ली सरकार लैपटाप व उसे चलाने के लिए दस हजारी सहायक देने की घोषणा पहले ही कर चुकी है। इन दिनों राजधानी में लोग पीने के पानी के लिए तरस रहे है लेकिन माननीय जनप्रतिनिधियों को उसकी चिंता नहीं है लेकिन उसी जनता के पैसों से वे अपने लिए सुविधाएं व आराम जुटाने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। इस मामले में सत्ता व विपक्ष का भेद मिटाकर सभी माननीय विधायकगण एकजुट हैं। भाजपा के एक वरिष्ठ विधायक राजधानी में जनता के बीच खुद को असुरक्षित मानते हुए कहते हैं कि भूमाफिया से विधायकों को डर क्योंकि वे विधायकों पर हमला कर सकते हैं। लेकिन सच सभी जानते हैं। ज्यादातर माननीयों के संरक्षण में ही ऐसे भूमाफिया फलफूल रहे हैं। हां दिल्ली में ला-आर्डर की सामान्यत: हालात ऐसी जरूर बनती जा रही है कि कहीं भी कभी भी किसी भी आम आदमी के साथ आपराधिक वारदात हो सकती है। ऐसे में सिर्फ माननीयों की सुरक्षा की बात कितनी बेमानी है। जनता के पैसों से दूध मलाई खाने की यह कोई पहला उदाहरण नहीं होगा। नगर निगम में माननीय पार्षदों के लैपटाप की कथा मीडिया में आए दिन छपती रही है। करोड़ों रुपये के लैपटाप खरीदकर पार्षदों को दे दिए गए तो वे भी लैपटाप चलाने के लिए सहायक मांगने लगे। अलबत्ता कई पार्षद तो डिजिटल वर्ड के लिहाज से निरक्षर थे लेकिन लैपटाप लेने तथा सहयोगी के नाम पर कुछ हजार रुपये महीने की मांग में वे सबसे आगे दिखाई देते थे। क्योंकि जनता के पैसे से मुफ्त की मलाई खाने में वे पीछे नहीं रहना चाहते हैं। अब यही वाकया विधानसभा में दुहराया जा रहा है। सत्तर विधायक तो सत्तर लैपटाप खरीदे जा रहे हैं। सभी माननीय विधायकों को दस-दस हजार रुपया नकद इस बात के लिए दिए जाने की तैयारी है कि वे इस पैसे एक ऐसा सहायक रखेंगे जो लैपटाप चला सके। अब इनसे कौन पूछे कि जो साहब लैपटाप चलाना ही नहीं जानते उन्हें लैपटाप पर क्या करना है यह कौन सिखाएगा। क्या भविष्य में वे इसके लिए अलग के एक सलाहकार भी मांगेगे? हां राजधानी के यह लैपटाप युक्त विधायक जनता के घरों में पानी व बिजली की आपूर्ति के लिए भी कुछ करते दिखाई देंगे। राजधानी में उद्योग धंधे चौपट हो रहे हैं। क्या फिर से उनके विकास के लिए यह कुछ कर सकेंगे। यह सवाल भी उठेगा मगर सरकारी सुरक्षा में लैपटाप मिलने के बाद। जाहिर है।

June 21, 2009

ठगी व जनसेवा वह करता था एक साथ!

हां माया होगी, वहीं ठग भी पाए जाएंगे। देश की राजधानी में लोग जितनी तेजी से समृद्धि की ओर बढ़ रहे हैं, उतनी तेजी से यहां ठग व दलालों का गिरोह भी फैल रहा है। पिछले दिनों एक महाठगी का मामला सामने आया तो पता चला कि यहां तो ऐसे न जाने कितने ठग और उनके शिकार हुए लोग हैं। जो लोग चुप थे, एक मामला सामने आते ही हल्ला मचाने लगे। पुलिस जो किसी न किसी रूप में इन ठगों को संरक्षण देती थी, अब वह भी कुछ करने को तत्पर दिखाई दे रही है। यह बात कोई दो साल पुरानी होगी जब नजफगढ़ तथा द्वारका इलाके से पांच छह लोग मुझसे मिलने आए थे। उन्होंने नजफगढ़ के तत्कालीन विधायक रणवीर खर्ब को अपना रिश्तेदार बताया था। उन्होंने बताया कि विधायक ने एक चिटफंड कंपनी खोली थी। इसमें उनका लाखों रुपया जमा कराया, लेकिन विधायक ने सारा पैसा गबन कर लिया है। पुलिस कोई कार्रवाई नहीं कर रही है, जबकि कोर्ट से भी विधायक के खिलाफ वे लोग कोई आदेश ले आए थे। रणवीर खर्ब से जब फोन पर पूछा गया कि आखिर फाइनेंस कंपनी में घपले का क्या मामला है, क्योंकि आपके कुछ रिश्तेदार ही आप पर ठगी का आरोप लगा रहे हैं? तो पहले उन्होंने फाइनेंस कंपनी से अपना संबंध होने से ही इनकार कर दिया। बाद में बोले कि भाई, जनता से जो पैसा लिया था, वह उन्हीं पर खर्च कर दिया। हमारे पास कुछ नहीं है। इलाके में पूछताछ करने पर पता चला कि रणवीर खर्ब काफी दानवीर किस्म का है। वह सालों से नजफगढ़ के लोगों को मुफ्त में पानी पिला रहा था। उसके पास अपने पानी के कई टैंकर हैं जो दिन-रात गांवों में लोगों को पीने का पानी पहुंचाते थे, वह भी मुफ्त। नजफगढ़ का ग्रामीण इलाका ऐसा है, जहां का भूजल इस लायक नहीं है कि उसे पिया जा सके। रणवीर खर्ब लोगों को अपने टैंकर से पानी पिलाकर काफी ख्याति अर्जित कर चुका था। इसी कारण लोगों ने उसे विधायक बना दिया। यह तो उसका बाहरी रूप था। अंदर वह फाइनेंस कंपनी खोलकर इलाके के किसानों खासकर, उन लोगों को जिन्हें जमीनों के मुआवजे के रूप में मोटी रकम मिली थी, ठगने का धंधा करता रहा। पानी वाला यह महाठग शायद उस समय यही कहना चाहता था कि जनता से लिया पैसा जनता को पानी पिलाने में खर्च कर दिया। जनता से लिए पैसे जब उसने नहीं लौटाए तो लोग पुलिस के पास पहुंचने लगे। ठगी के शिकार लोगों में तमाम ग्रामीणों के साथ ही खर्ब के अपने कई रिश्तेदार भी थे। सबने पंचायत व रिश्तेदारों से लेकर पुलिस व कोर्ट तक चक्कर लगा लिया, लेकिन उस समय ठग से विधायक बन चुके रणवीर के खिलाफ पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की। पुलिस की आर्थिक अपराध शाखा भी है, लेकिन सच्चाई यह है कि वह भी केवल छोटे-मोटे मामलों तक ही खुद को सीमित रखती है। जब तक ऊपर से दबाव अथवा मीडिया में हंगामा न खड़ा हो, सफेदपोशों पर इस शाखा से कोई कार्रवाई नहीं होती है। इस पानी वाले महाठग का मामला तो आज सबके संज्ञान में है, लेकिन अन्य मामले भी किसी न किसी रूप में पुलिस के सामने पहले भी जरूर आए होंगे। लेकिन उन्हें दबाने व कार्रवाई की लंबी प्रक्रिया के बहाने सफेदपोशों को बचाने तक ही पुलिस सीमित रहती है। यदि एक मामले में पुलिस कार्रवाई कर दे तो कई अन्य छिपे मामले भी तत्काल सामने आ जाएंगे। संभव है, कुछ लोग इन महाठगों के जाल से बच जाएं।

June 15, 2009

हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं

प्रिय यशवंत,
मैने जनसत्ता में नई पत्रकारिता पर आदरणीय प्रभाष जोशी जी के कालम कागद कारे के कुछ विषयों पर असहमति जताते हुए उनसे कुछ सवाल पूछे थे। पूरे हफ्ते इंतजार किया कि शायद उनकी ओर से अरविंद केजरीवाल के संबंध में की गई टिप्पणी तथा खबरों के बदले पैसा लिए जाने के विरोध के तरीके पर वे कोई जवाब देंगे। क्योंकि मेरा मानना है कि मुद्दा चाहे जितना गंभीर हो, यदि उसे सही ढंग से न उठाया जाए तो वह अपने प्रभाव तथा परिणाम दोनों से वंचित हो जाता है। फिलहाल जोशी जी ने इसका जवाब देना उचित नहीं समझा और उनकी ओर से जिन तीन लोगों ने आपको पत्र लिखा और जिसे भड़ास फार मीडिया पर प्रकाशित किया गया। वह केवल जोशी जी की महानता पर मेरी टिप्पणी को ओछी बताने तक ही सीमित रहा। असल सवाल जस का तस है कि क्या कुछ लोगों को गाली देने भर से प्रभाष जी पत्रकारिता का भला करने की सोच रहे हैं। यह गालीबाजी तो वे वर्षों से जनसत्ता में करते आ रहे हैं। पत्रकारिता की वतर्मान में भ्रष्ट होने की प्रक्रिया में कब और कहां वे कमी ला सके। यदि वे वास्तव में पत्रकारिता में घटित हो रहे कुछ खराब बातों को दुरुस्त करना चाहते हैं तो उसके लिए और भी रास्ते हो सकते हैं। यशवंत जी आपने जो तीनों पत्र श्री आलोक तोमर, दयानंद पांडेय तथा बिनय बिहारी सिंह की ओर से b4m पर प्रकाशित किया है वे किसी न किसी रूप में जनसत्ता से जुड़े रहे हैं। आपने चालाकी से यह सूचना छिपाया जो उचित नहीं था। बिनय बिहारी तो वर्तमान में भी जनसत्ता के कलकत्ता में रिपोर्टर हैं।
फिलहाल इन तीनों के पत्र पढ़ने के बाद मुझे लगा कि शायद मैने यह लेख जोशी जी के खिलाफ किसी अभियान के तहत लिखा है। लेकिन यह सच नहीं है। सच सिर्फ यह है कि जोशी जी जिस मुद्दे को पत्रकारिता के लिए कलंक बता रहे हैं। कमोवेश उससे हम भी सहमत हैं लेकिन उनके आंदोलन का तरीका निहायत गलत है जो कभी भी उनके कथित उद्देश्य को पूरा नहीं कर सकता है। इस विषय को समाज से कटे किसी संत की तरह नहीं बल्कि गृहस्थ परिवार के उस मुखिया की तरह हल ढूंढना चाहिए जिस पर पूरे परिवार की जिम्मेदारी होती है। इसीलिए मैं फिर से अपना सवाल दोहराता हूं कि अखबार व अखबार के मालिकों को गाली देने के एकालाप के बजाय इस पर संवाद की कोशिश शुरु होनी चाहिए। यह काम जोशी जी जैसे वरिष्ठ पत्रकार ही शुरु कर सकते हैं। गाली देकर वे कुछ लोगों की निगाह में महान पत्रकार बने रह सकते हैं किंतु पत्रकारिता का वे शायद ही कोई भला कर पाएं।
जोशी जी जैसों पर उंगली उठाकर हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं है। वे बड़े हैं लेकिन फिर भी मैं कुछ विनम्र सलाह उन्हें देना चाहूंगा। वर्तमान में ऐसा लगता है कि आलोक तोमर जैसे कुछ लोग उनके स्वयंभू प्रवक्ता हैं। वे अपने पत्र में मेरे बारे में न जाने क्या-क्या लिखते हैं। यदि बोलचाल में भी उनकी यही भाषा है तो मुझे समझ में नहीं आता कि उन्हें जनसत्ता ने इतने दिनों कैसे बर्दाश्त किया। वे एक ओर खुद को प्रभाष जी का सबसे स्वामिभक्त मानते हैं दूसरी ओर वे यह भी बताने से नहीं चूकते कि प्रभाष जी ने जिन लोगों का चयन किया और उत्तराधिकारी बनाया उनमें से ज्यादातर निकम्मे और कई तो बाकायदा भ्रष्ट निकले।, उनका यह कहना यह दर्शाता है कि प्रभाष जोशी जी को आदमियों की पहचान नहीं है। ऐसा हो सकता है क्योंकि सच्चे लोग प्रपंच व छल कपट वालों के झांसे में अक्सर आ जाते हैं। मैं सिर्फ इस बात में कुछ और जोड़ना चाहता हूं कि जोशी जी ने कई ऐसो लोगों को भी अपना आशीर्वाद दिया जो भाषा की शालीनता को न समझते हैं न उन्हें इसका शउर है। ऐसे लोगों में तोमर व पांडेय जैसे लोग भी शामिल हैं। उम्मीद है कि प्रभाष जी ऐसों को अपना प्रवक्ता बनने का मौका नहीं देंगे।
आलोक जी ने अपने पत्र में मेरी हिम्मत, तर्क व तथ्यों की बात उठायी है। तो मैं स्पष्ट करना चाहूंगा कि न तो मैं आलोक जी की तरह चंबल की पृष्टभूमि से आया हूं और न ही तिहाड़ में रहने का कोई मौका मिला है। इस लिहाज से आलोक जी मुझसे ज्यादा हिम्मती हो सकते हैं। हां अगर गाली गलौज को वे तर्क व तथ्य समझते हैं तो यह भी उन्हें ही मुबारक हो। जहां तक जनसत्ता को असफल अखबार बताने की बात है तो मैं यह कहना चाहूंगा कि, तूफान में तो तिनके भी आसमान पर पहुंच जाते हैं। इसका यह मतलब नहीं है कि वे हवाई जहाज अथवा पतंग की तरह हैं। जिन दिनों जनसत्ता अखबार पैदा हुआ था इमरजेंसी व कांग्रेसी भ्रष्टाचार के प्रति आम जनमानस में भारी रोष था। जनसत्ता ने शुरु होने के साथ ही भ्रष्टाचार पर जमकर लिखा। प्रभाष जोशी जी इसके अगुवा थे। उन दिनों मैं छात्र हुआ करता था। एक दिन पुराना अखबार भी एक दम ताजे अखबार की तरह पढ़ने का इंतजार रहता था। तब से काफी समय गुजर गया। दुनिया बदल गई, अखबारों की भाषा बदल गई, संपादक बदल गए। अगर कुछ नहीं बदला तो जनसत्ता अखबार। बड़ी पुरानी कहावत है कि मूर्ख व मृत लोग अपने विचार नहीं बदलते हैं। अब यह कहावत कितनी सही है हमें नहीं मालुम लेकिन न बदलने का खामियाजा इस अखबार को भुगतना पड़ा। और यह अखबार अब एक असफल अखबार बन चुका है।
अगर समय के साथ यह अखबार नहीं बदला तो इसके लिए अकेले मालिक को ही नहीं बल्कि संपादक को भी दोषी माना जाएगा। वह भले ही प्रभाष जोशी हों।
दयानंद पांडेय को तो खैर मैं लखनऊ से जानता हूं। मैं उन पर निजी टिप्पणी करके स्पेस खराब नहीं करना चाहता हूं। पांडेय जी से सिर्फ यही कहना चाहता हूं कि मंजिल तय करने के लिए सड़क पर चलना पड़ता है। चौराहे पर लगातार गोल चक्कर लगाने से कोई मंजिल हासिल नहीं होती है।
बृजेश सिंह

June 11, 2009

काजी जी दुबले क्यों? शहर के अंदेशे में

आदरणीय प्रभाष जोशी जी
मुझे नहीं मालुम कि आपके दिल में क्या है जो आप चुनाव में नेताओं के बयान वाली खबरों के अखबारों में पैसे लेकर छपने से इतने खफा हैं। लेकिन पिछले हफ्ते जनसत्ता में आपने जितना भी कागज काला किया उसमें आपने तमाम साफगोइयों के बावजूद अपनी कुंठाओं को छिपा नहीं सके। आप अच्छी तरह जानते हैं कि आप एक असफल अखबार के सफल संपादक हैं। प्रायः ऐसा होता नहीं है, लेकिन आप लोगों को यह मनवाने में सफल रहे। जिस जनसत्ता के आप संपादक हैं आज वह गली मोहल्लों में छपने वाले स्थानीय अखबारों से भी कम संख्या में लोगों द्वारा खरीदा व पढ़ा जाता है। यदि सार्थक पत्रकारिता के प्रति आम जनमानस का यह रवैया है तो इसमें आपकी कोई गलती नहीं है। अलबत्ता आपको ऐसे पाठकों के बारे में भी जरुर कुछ लिखना चाहिए। उम्मीद है भविष्य में आप इस पर जरुर कुछ लिखेंगे।
मैं विषय से भटक गया था हां मैं यह कह रहा था कि आपने नई पत्रकारिता के बहाने जो कुछ लिखा उसमें आप पत्रकारिता के प्रति चिंता कम केजरीवाल के मैग्सेसे पुरस्कार तथा उनके द्वारा बांटे जाने वाले आरटीआई
पुरस्कार के ज्यूरी में अखबार विशेष के संपादक को शामिल किए जाने का दर्द ज्यादा झलक रहा है। आपके अनुसार अरविंद केजरीवाल को मैग्सेसे पुरस्कार सिफारिश से मिला था। यह सिफारिश कब और किसने की यह आपने खुलासा नहीं किया। संपादक के नाते अभी भी आपको यह जरुर बताना चाहिए कि मैगसेसे पुरस्कार के लिए कहां कहां सिफारिश की जा सकती है। एक बात और नहीं समझ में आती है कि जिस केजरीवाल को आप सिफारिश से पुरस्कार हासिल करने वाला मानते हैं उसी केजरीवाल के माध्यम से आरटीआई के क्षेत्र में काम करने वाले लोगों के लिए शुरु किए जा रहे एक पुरुस्कार व उसकी ज्यूरी कमेटी को लेकर आप इतने संजीदा क्यों हैं। दिल्ली में न जाने कितनी संस्थायें न जाने जिन तिन ऐरे गैरे को पुरस्कार देती रहती हैं। आपने कभी उनके लिए कागज क्यों काला नहीं किया? क्या इस पुरस्कार से ज्यादा आप उस अखबार व संपादक से नाराज हैं जिसे केजरीवाल ने ज्यूरी बनाया है। यदि ऐसा है तो निश्चय ही आप विषय की बजाय व्यक्ति के प्रति अपनी निजी धारणा को तरजीह दे रहे हैं जो आपके पत्रकारिता के प्रति चिंता के दोगलेपन का उदाहरण है।
आदरणीय जोशी जी मैं नहीं जानता कि व्यक्ति के रूप में आप कैसे हैं परंतु आप अच्छे पत्रकार हैं तथा कलम के धनी हैं मैं यह मानता हूं। फिर भी इस लेख में आप अपने पत्रकारीय कौशल से भी अपनी भावना को छिपा नहीं सके हैं। सामान्य धारणा है कि चोरी करने वाला चोर होता है। किसी चोर की नैतिकता को मापने का यह कोई तरीका नहीं हो सकता कि उसने कितनी मात्रा में चोरी की थी। लेकिन आपने अपने कालम में लिखा है कि, (अरविन्द केजरीवाल ने यह पुरस्कार तय करने के लिए जो समिति बनाई है, उसमें ऐसे अखबार और उसके मालिक संपादक को भी रखा है, जिसने इस लोकसभा चुनाव में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार किया।)। सबसे ज्यादा पर अपने बहुत जोर दिया है। अब चुनाव में पैसे लेने वाले सभी अखबारों में किसी एक अखबार को आपने सबसे ज्यादा भ्रष्ट कैसे माना यह किसी भी आम आदमी की समझ में नहीं आ सकता है। क्योंकि नैतिक रूप से तो सबने एक ही नियम का उल्लंघन किया है। इससे यही झलकता है कि अखबार विशेष के प्रति आप निजी तौर पर जो राय रखते हैं संपादक व पत्रकार के रूप में आपने उसी भड़ास को जनसत्ता में लिख मारा है। यही नहीं आपका यह भी दावा है कि उक्त अखबार ने चुनाव में दो सौ करोड़ की काली कमाई की। निश्चय ही यह आंकड़े बाजी कोई नौसिखुआ पत्रकार करता तो नजरअंदाज करने वाली गलती मानी जा सकती है आप जैसे लोग यह गलती नादानी में नहीं कर सकते हैं। जो अनाम लोग आपके सूत्र हैं वैसे सूत्र हम पत्रकार किसी की भी बखिया उधेड़ने के लिए आए दिन गढ़ते रहते हैं। लेकिन आपकी वरिष्ठता व गरिमा के हिसाब से यह आंकड़ेबाजी आपको यह शोभा नहीं देती है।
हां आपने लखनऊ वाले लालजी टंडन का भी जिक्र किया है। लालजी टंडन के बारे में लखनऊ का हर अखबार वाला जानता है। थोड़ा बहुत यहां गाजियाबाद के लोग भी जानते हैं। शहरी विकास मंत्री के रूप में उनके कारनामें भी हम लोगों ने काफी करीब से देखे हैं। गाजियाबाद तथा नोएडा प्राधिकरणों में आज भी उन की चर्चा होती रहती है। यदि लालजी टंडन किसी का इस्तेमाल करें तो ठीक। और जब लालजी टंडन की टेंट कोई ढीली करा ले तो...। इससे ज्यादा हम उनके बारे में नहीं कहना चाहेंगे। आपको वे बाजपेई के उत्तराधिकारी के रूप में क्यूं महान नजर आते है हमें नहीं मालुम। हां मोहन सिंह राजनीति में भद्र लोगों में शुमार किए जाते हैं।
सामाजिक मुद्दों पर हंगामा करने वाले भाजपा व दक्षिणपंथी संगठनों के बारे में अक्सर दिल्ली के मठाधीश पत्रकार उन्हें स्वयंभू ठेकेदार कहकर आलोचना किया करते हैं। अब यही ठेकेदारी क्या मीडिया में भी नहीं हो रही है। हमें आत्म मुग्ध होने की जरूरत नहीं है यदि नए दौर की पत्रकारिता में कुछ गलत हो रहा है तो उसे नए दौर का पाठक खुद ही दुरुस्त भी कर लेगा। यह काम पुराने ठेकेदारों के बश का नहीं है। आज का पाठक पुराने पाठकों से ज्यादा चतुर व बुद्धिमान है। वैसे भी यह जरुरी नहीं है कि जो आज सच है जरूरी है वह कल भी सच हो और उतना ही जरूरी भी। बदलाव तो होगा ही। आप भरोसा रखें पहले से बेहतर होगा। कुछ अखबार मालिकों के गलत होने अथवा आपके कागद काला करने से इसे रोका नहीं जा सकता है। आने वाली पीढ़ी इसे खुद ही दुरुस्त कर लेगी।

June 08, 2009

एक था इंडियन कॉफी हाउस


दिल्ली को बसाने वाले लार्ड हार्डिग व सर एडविन लुटियंस ने राजधानी में कॉफी हाउस के लिए अलग से तो कोई जगह नहीं बनायी थी लेकिन कॉफी के शौकीन अंग्रेजों के लिए उन्होंने इम्पीरियल होटल में 1911 में ही एक कॉफी शाप जरूर खुलवा दिया था। उन दिनों यहां आम इंडियंस का आना जाना नहीं था। बाद में 1940 में अंग्रेजों ने कॉफी बोर्ड आफ इंडिया के माध्यम से देश के कुछ शहरों में कॉफी हाउस खोलना शुरू किया। हालांकि, आजादी मिलने के बाद वर्ष 1950 के मध्य कॉफी बोर्ड ने इन्हें बंद कर दिया। इन बंद कॉफी हाउस को खुलवाने में वामपंथी नेता एके गोपालन ने मदद की और कॉफी वर्कर्स कोआपरेटिव सोसायटी गठित कर 1957 में इन्हें दुबारा चालू कराया। इसी सोसायटी ने दिल्ली में अपना पहला इंडियन कॉफी हाउस कनाट प्लेस में 1957 में स्थापित किया। शायद देश में सहकारी आंदोलन का यह पहला प्रयास था। सहकारी आंदोलन को फेल हुए तो कई दशक बीत चुके हैं किंतु इंडियन कॉफी हाउस तमाम झंझावतों को झेलता हुआ अभी तक चल रहा था। लेकिन इस खबर को जब आप पढ़ रहे होंगे तो कनाट प्लेस स्थित मोहन सिंह पैलेस में इस कॉफी हाउस के बंद किए जाने के लिए सामान समेटा जा रहा होगा। औपचारिक रूप से 10 जून को इसे बंद कर दिया जाना है। इंडियन कॉफी हाउस का बंद होना सिर्फ एक दुकान का बंद होना नहीं बल्कि देश की अर्थव्यवस्था के एक प्रयोग का खात्मा है। क्योंकि, देश में कॉफी की उपयोगिता घटी नहीं है। देश में पूंजीवादी अर्थव्यवस्था लगातार फल फूल रही है। जिस समय कनाट प्लेस में बड़े बड़े नेताओं से संरक्षण हासिल कर इंडियन कॉफी हाउस की स्थापना की गई थी, उससे एक दशक पहले 1942 में एक अनाम से व्यापारी राजहंस कालरा ने कनाट प्लेस में ही यूनाइटेड कॉफी हाउस के नाम से एक दुकान खोली थी। आज वे करोड़ों के मालिक हैं। राजधानी के डिफेंस कालोनी सहित कई अन्य स्थानों पर यूनाइटेड कॉफी हाउस (यूसीएच) की शाखायें खुल चुकी हैं। अलबत्ता वे यह दावा तो नहीं करते होंगे कि उन्होंने देश को कई प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री दिए हैं अथवा वहां बैठकर लोग राष्ट्रपति बन चुके हैं, लेकिन वे आर्थिक रूप से सफल रहकर बदलती अर्थव्यवस्था से तालमेल बिठाने में कामयाब जरूर रहे। इंडियन कॉफी हाउस में तालाबंदी की खबर के बाद कॉफी कंज्यूमर फोरम की ओर से जारी दो पन्नों का बयान देखकर लगा कि इंडियन कॉफी हाउस, कॉफी हाउस न होकर कोई पुरातात्विक धरोहर है। जिसे संरक्षित किए जाने की गुहार की जा रही हो। भाई, धंधे को धंधे की तरह नहीं चलाओगे तो सरकार की दया पर और कितने दिन चल पाओगे। जमाना बदल रहा है। कॉफी हाउस का मतलब अब इंडियन कॉफी हाउस नहीं बल्कि बरिस्ता होता है। बड़े नेताओं के बेटे बेटियां बरिस्ता में बैठेंगे या नुक्कड़ की दुकान की तरह चलने वाले पुराने कहवाघर में। इंडियन कॉफी हाउस नो प्राफिट नो लॉस के आधार पर चलता रहा है। मायने इस संस्था के पल्ले कुछ भी नहीं है। भाई, अर्थशास्त्र को न भी मानो तो भारतीय जनमानस की आम धारणा को ध्यान में रखते कि गाढ़े दिनों के लिए कुछ तो बैंक बैलेंस होना चाहिए। जब दुनिया बदल रही थी तो तुम भी अपने को इन्हीं पैसों से अपग्रेट कर लेते, लेकिन ऐसा न हो सका। अब घाटे पर घाटा और उम्मीद यह कि सांसदों व विधायकों को मिलने वाले विकास मद से इस कॉफी हाउस को चलाया जाए। आगे क्या होगा यह मालूम नहीं मगर मेरा मानना है कि इसे हो सके तो दस जून तक इंतजार करने के बजाय आज ही बंद कर दिया जाए। जो खुद का बोझ न उठा सकता हो उसे दूसरे के कंधों पर बिठाकर कितनी दूर ले जाया जा सकता है। इंडियन कॉफी हाउस भले न रहे लेकिन कॉफी का कारोबार तो बना ही रहेगा।

June 01, 2009

सड़क पर पप्पुओं के खिलाफ हमें आपको भी आगे आना होगा

शहर की सड़कों पर लोगों को सुरक्षित रखने के लिए दिल्ली पुलिस फिर सप्ताह मना रही है। इसके तहत सप्ताह भर पूरे शहर में विशेष चौकसी, नियमों का पालन न करने वालों पर कार्रवाई, चालान, प्रेस कांफ्रेंस, अखबारों में उपलब्धियों की फोटो छपवाना जैसे काम शामिल रहेगा। उसके बाद? हम व आप तो अगले हफ्ते भी इसी सड़क से गुजरेंगे। तब क्या होगा? यही वह सवाल है जो पुलिस के सड़क सुरक्षा सप्ताह पर सवालिया निशान लगा देता है। हर साल यहां की सड़कों पर दो हजार से ज्यादा लोग दुर्घटना में दम तोड़ देते हैं। इनमें आधे से अधिक ऐसे लोग होते हैं जो किसी वाहन पर सवार नहीं होते, बल्कि पैदल चल रहे होते हैं। अब पुलिस हर वाहन चालक के पीछे तो चल नहीं सकती, इसलिए राजधानी में वाहन चलाने वालों के लिए सड़क के नियमों के प्रति ज्यादा सतर्कता के लिए सिर्फ पुलिस का सप्ताह व पखवाड़ा अभियान चलाना पर्याप्त नहीं होगा। जिस तरह दिल्ली के चुनाव में मतदान के लिए पप्पू अभियान में तमाम संगठन, मीडिया व संस्थाओं ने भागीदारी की थी, उसी तरह ट्रैफिक सेंस बहाल करने के लिए भी प्रयास करने की जरूरत है। लेकिन इससे पहले दिल्ली पुलिस खासकर ट्रैफिक पुलिस को अपना चाल-चलन सुधारना होगा। आम आदमी तभी इस अभियान से जुड़ेगा। नई दिल्ली के युवा सांसद अजय माकन दिल्ली वालों के सौभाग्य से केंद्र में गृह राज्यमंत्री बन गए हैं। वे भी अपनी साफ-सुथरी छवि का इस अभियान में इस्तेमाल कर सकते हैं। माकन साहब, वैसे भी चुनाव के दिनों में आपने रैली न निकालकर जताया था कि आप ट्रैफिक जाम से लोगों को बचाना चाहते हैं। अब आप जनता के सहयोग से मंत्री बन गए हैं तो लोगों को उम्मीद है कि सड़क पर ट्रैफिक से जाने वाले जिंदगियों को बचाने के लिए भी कुछ जरूर करेंगे। जब तक सड़क पर चलने वाला हर वाहन चालक व पैदल यात्री ट्रैफिक नियमों को दिल से इज्जत नहीं देगा, तब तक वह इस पर ईमानदारी से अमल भी नहीं करेगा। केवल चौराहों पर ट्रैफिक पुलिस खड़ी कर देने से अथवा चौराहों के पीछे छिपकर नियमों का उल्लंघन करने वालों को पकड़कर चालान काट देने भर से न तो सड़कों पर खूनी खेल थमेगा, न बहुमूल्य जिंदगियों को बचाया ही जा सकेगा।
दिल्ली पुलिस के मुखिया युद्धवीर सिंह डडवाल ने डेढ़ साल पहले जब पदभार संभाला था तो उन्होंने कहा था कि राजधानी में किसी भी अपराध से ज्यादा सड़क हादसों में लोगों की मौत होती है। वे प्राथमिकता के आधार ट्रैफिक व्यवस्था में सुधार करके इन मौतों पर अंकुश लगाएंगे। यदि वे अपने प्रयास से कुछ जिंदगियां बचा पाएं तो किसी भी अन्य अपराध को रोकने से यह काम ज्यादा महत्वपूर्ण होगा। लेकिन ऐसा हो न सका। लोग अब भी सड़कों पर कीड़े-मकोड़ों की तरह मर रहे हैं। जनवरी 2009 से अब तक पांच माह में राजधानी की सड़कों पर दुर्घटना में आठ सौ लोगों की जान जा चुकी है। इनमें से आधे लोग या तो पैदल राहगीर थे या सड़क पार कर रहे थे। ऐसा नहीं है कि इन हादसों में मरने वाले पैदल यात्रियों की गलतियां नहीं होती हैं, लेकिन यहां सवाल है कि दिल्ली की सड़कों पर सालाना होने वाली हजारों मौत का खेल आखिर कब तक जारी रहेगा। इसे रोकने के लिए केवल पुलिस ही नहीं हम सबको आगे आना होगा।

May 28, 2009

दलित खुद हैं दलित आंदोलन की राह में बाधा

दक्षिणी दिल्ली के सर्वोदय एंक्लेव स्थित एक तीन मंजिला भवन के तहखाने में देश के दलितों की हित चिंता का मिशन दिन-रात चलता रहता है। इसी भवन की पहली मंजिल पर दलितों के नेता उदितराज सपरिवार रहते भी हैं। आईआरएस की नौकरी छोड़ दलित हित की लड़ाई में कूदे उदितराज का मूल नाम रामराज था। उन्होंने हिंदुओं में व्याप्त जाति व्यवस्था से बगावत करते हुए वर्ष 2002 में न केवल नाम बदला, बल्कि धर्म भी बदल लिया। बाबा साहेब अंबेडकर को आदर्श मानने वाले अब बौद्ध धर्मावलंबी उदितराज यह अच्छी तरह जानते हैं कि राजनीतिक शक्ति के बिना किसी समाज का भला नहीं हो सकता, इसलिए उन्होंने इंडियन जस्टिस पार्टी बनाई। दलितों को आरक्षण दिए जाने की वह भरपूर वकालत करते हैं। इन दिनों दिल्ली में डीडीए फ्लैट आवंटन में दलितों के कोटे में हुई भारी धांधली के खुलासे को लेकर वह फिर चर्चा में हैं। पेश है बातचीत के कुछ अंश :

आप खुद को क्या मानते हैं? विचारक, सुधारक या राजनेता।
मेरी भूमिका सुधारक की है। पहले मैं सुधारक हूं तथा बाद में राजनेता भी, क्योंकि मेरा मानना है कि राजनीति ही समाज सुधार का मुख्य जरिया हो सकती है, इसीलिए मैं राजनीति में आया हूं।

आप लगातार चर्चा में रहते हैं, कभी धर्म परिवर्तन, पेरियार का समर्थन, आरक्षण की वकालत और अब डीडीए घोटाले को लेकर भी आप काफी सक्रिय हैं।
मैंने ऐसी कोई कोशिश नहीं की। मैंने धर्म बदला था, क्योंकि मैं बाबा साहेब को अपना आदर्श मानता हूं। पेरियार के समर्थन में यूपी में गया, क्योंकि जो कांशीराम कभी पेरियार मेला लगाते थे, उन्हीं की विरासत चलाने वाली मायावती अब पेरियार पर पाबंदी लगा रही हैं। यह वैचारिक छलावा है, जिसका मैंने विरोध किया। डीडीए में घोटाले का जहां तक मामला है, इसे मैं दलितों का मुद्दा नहीं, बल्कि विशुद्ध रूप से भ्रष्टाचार का मुद्दा मानता हूं।

कैसा होगा भविष्य का दलित आंदोलन? यह और मजबूत होगा।
हम बड़ी लड़ाई की तैयारी में जुटे हैं। आज दलित आंदोलन की राह में सबसे बड़ी बाधा खुद दलित हैं। वे जातियों में बंटे हैं। जातीय अहंकार, स्वार्थ तथा चमचागिरी दलित आंदोलन को सबसे अधिक नुकसान पहुंचा रहे हैं। (बातचीत के बीच में लगातार उनके मोबाइल व फोन की घंटी बजती रहती है। वह सभी फोन सुनते हैं तथा लोगों को आंदोलन के बारे में निर्देश भी देते रहते हैं। लोग निजी समस्याएं बताते हैं तो वह मदद के आश्वासन के साथ ही यह आग्रह करते हैं कि समाज के लिए भी सोचो)

आप धार्मिक भेदभाव से जातीय भेदभाव को अधिक खतरनाक क्यों मानते हैं?
धर्म विकास में बाधा नहीं है। जातियां सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक सभी पक्षों को प्रभावित करती हैं। तभी मैं कहता हूं कि जातियां समाप्त कर दो तथा समान अनिवार्य शिक्षा लागू कर दो तो मैं सबसे पहला व्यक्ति होऊंगा, जो आरक्षण को समाप्त करने की मांग करेगा। नहीं तो आरक्षण होना चाहिए और अधिक होना चाहिए।

आप मायावती का सबसे अधिक क्यों विरोध करते हैं?
मैं मायावती का नहीं, बल्कि उनकी नीतियों का विरोध करता हूं। बसपा ने बाबा साहब के जातिविहीन सिद्धांतों को नकार दिया है। वह जातीय संगठनों को बढ़ावा देकर जातियों को और मजबूत कर रही हैं।
दलित फ्रंट ने भी प्रधानमंत्री के लिए पासवान का नाम उछाल दिया।
अमेरिका में अश्वेत बराक ओबामा के राष्ट्रपति बनने के बाद भारत में भी दलित प्रधानमंत्री बनाने की चर्चा है। मैं समझता हूं कि वर्तमान में रामविलास पासवान से योग्य अन्य कोई दलित उम्मीदवार नहीं है, जो प्रधानमंत्री बन सके और यह होना भी चाहिए।

आपने सवर्ण लड़की से प्रेम विवाह किया। सरकारी नौकरी छोड़ दी, दलित आंदोलन में कूदे। आपके फैसलों में परिवार का कितना सहयोग मिलता है?
मैं इलाहाबाद के एक गांव से ताल्लुक रखता हूं। आईआरएस बनने के बाद सीमा राज से शादी की। पत्नी भी आयकर विभाग में कमिश्नर हैं। मेरे हर फैसले में पत्नी ने पूरा साथ दिया। मैं परिवार के साथ क्वालिटी लाइफ जी रहा हूं। एक बेटा तथा एक बेटी हैं, जिनसे मेरे दोस्ताना संबंध हैं। कभी मेरे सामाजिक जीवन में परिवार बाधा नहीं बना और मैंने भी परिवार की उपेक्षा नहीं की।