June 28, 2009

माननीयों को 'दूध घी' पर जनता को नसीब नहीं पानी

देश के अन्य राज्यों की भांति अब राजधानी के जनप्रतिनिधि भी चल पड़े हैं। उन्हें भी जनता के बीच जाने से डर लगने लगा है। इसलिए अब उन्हें चाहिए परमानेंट पुलिस सुरक्षा। पुलिस सुरक्षा के साथ वे लालबत्ती लगी गाड़ी की भी मांग रखने लगे हैं। दिल्ली सरकार लैपटाप व उसे चलाने के लिए दस हजारी सहायक देने की घोषणा पहले ही कर चुकी है। इन दिनों राजधानी में लोग पीने के पानी के लिए तरस रहे है लेकिन माननीय जनप्रतिनिधियों को उसकी चिंता नहीं है लेकिन उसी जनता के पैसों से वे अपने लिए सुविधाएं व आराम जुटाने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। इस मामले में सत्ता व विपक्ष का भेद मिटाकर सभी माननीय विधायकगण एकजुट हैं। भाजपा के एक वरिष्ठ विधायक राजधानी में जनता के बीच खुद को असुरक्षित मानते हुए कहते हैं कि भूमाफिया से विधायकों को डर क्योंकि वे विधायकों पर हमला कर सकते हैं। लेकिन सच सभी जानते हैं। ज्यादातर माननीयों के संरक्षण में ही ऐसे भूमाफिया फलफूल रहे हैं। हां दिल्ली में ला-आर्डर की सामान्यत: हालात ऐसी जरूर बनती जा रही है कि कहीं भी कभी भी किसी भी आम आदमी के साथ आपराधिक वारदात हो सकती है। ऐसे में सिर्फ माननीयों की सुरक्षा की बात कितनी बेमानी है। जनता के पैसों से दूध मलाई खाने की यह कोई पहला उदाहरण नहीं होगा। नगर निगम में माननीय पार्षदों के लैपटाप की कथा मीडिया में आए दिन छपती रही है। करोड़ों रुपये के लैपटाप खरीदकर पार्षदों को दे दिए गए तो वे भी लैपटाप चलाने के लिए सहायक मांगने लगे। अलबत्ता कई पार्षद तो डिजिटल वर्ड के लिहाज से निरक्षर थे लेकिन लैपटाप लेने तथा सहयोगी के नाम पर कुछ हजार रुपये महीने की मांग में वे सबसे आगे दिखाई देते थे। क्योंकि जनता के पैसे से मुफ्त की मलाई खाने में वे पीछे नहीं रहना चाहते हैं। अब यही वाकया विधानसभा में दुहराया जा रहा है। सत्तर विधायक तो सत्तर लैपटाप खरीदे जा रहे हैं। सभी माननीय विधायकों को दस-दस हजार रुपया नकद इस बात के लिए दिए जाने की तैयारी है कि वे इस पैसे एक ऐसा सहायक रखेंगे जो लैपटाप चला सके। अब इनसे कौन पूछे कि जो साहब लैपटाप चलाना ही नहीं जानते उन्हें लैपटाप पर क्या करना है यह कौन सिखाएगा। क्या भविष्य में वे इसके लिए अलग के एक सलाहकार भी मांगेगे? हां राजधानी के यह लैपटाप युक्त विधायक जनता के घरों में पानी व बिजली की आपूर्ति के लिए भी कुछ करते दिखाई देंगे। राजधानी में उद्योग धंधे चौपट हो रहे हैं। क्या फिर से उनके विकास के लिए यह कुछ कर सकेंगे। यह सवाल भी उठेगा मगर सरकारी सुरक्षा में लैपटाप मिलने के बाद। जाहिर है।

June 21, 2009

ठगी व जनसेवा वह करता था एक साथ!

हां माया होगी, वहीं ठग भी पाए जाएंगे। देश की राजधानी में लोग जितनी तेजी से समृद्धि की ओर बढ़ रहे हैं, उतनी तेजी से यहां ठग व दलालों का गिरोह भी फैल रहा है। पिछले दिनों एक महाठगी का मामला सामने आया तो पता चला कि यहां तो ऐसे न जाने कितने ठग और उनके शिकार हुए लोग हैं। जो लोग चुप थे, एक मामला सामने आते ही हल्ला मचाने लगे। पुलिस जो किसी न किसी रूप में इन ठगों को संरक्षण देती थी, अब वह भी कुछ करने को तत्पर दिखाई दे रही है। यह बात कोई दो साल पुरानी होगी जब नजफगढ़ तथा द्वारका इलाके से पांच छह लोग मुझसे मिलने आए थे। उन्होंने नजफगढ़ के तत्कालीन विधायक रणवीर खर्ब को अपना रिश्तेदार बताया था। उन्होंने बताया कि विधायक ने एक चिटफंड कंपनी खोली थी। इसमें उनका लाखों रुपया जमा कराया, लेकिन विधायक ने सारा पैसा गबन कर लिया है। पुलिस कोई कार्रवाई नहीं कर रही है, जबकि कोर्ट से भी विधायक के खिलाफ वे लोग कोई आदेश ले आए थे। रणवीर खर्ब से जब फोन पर पूछा गया कि आखिर फाइनेंस कंपनी में घपले का क्या मामला है, क्योंकि आपके कुछ रिश्तेदार ही आप पर ठगी का आरोप लगा रहे हैं? तो पहले उन्होंने फाइनेंस कंपनी से अपना संबंध होने से ही इनकार कर दिया। बाद में बोले कि भाई, जनता से जो पैसा लिया था, वह उन्हीं पर खर्च कर दिया। हमारे पास कुछ नहीं है। इलाके में पूछताछ करने पर पता चला कि रणवीर खर्ब काफी दानवीर किस्म का है। वह सालों से नजफगढ़ के लोगों को मुफ्त में पानी पिला रहा था। उसके पास अपने पानी के कई टैंकर हैं जो दिन-रात गांवों में लोगों को पीने का पानी पहुंचाते थे, वह भी मुफ्त। नजफगढ़ का ग्रामीण इलाका ऐसा है, जहां का भूजल इस लायक नहीं है कि उसे पिया जा सके। रणवीर खर्ब लोगों को अपने टैंकर से पानी पिलाकर काफी ख्याति अर्जित कर चुका था। इसी कारण लोगों ने उसे विधायक बना दिया। यह तो उसका बाहरी रूप था। अंदर वह फाइनेंस कंपनी खोलकर इलाके के किसानों खासकर, उन लोगों को जिन्हें जमीनों के मुआवजे के रूप में मोटी रकम मिली थी, ठगने का धंधा करता रहा। पानी वाला यह महाठग शायद उस समय यही कहना चाहता था कि जनता से लिया पैसा जनता को पानी पिलाने में खर्च कर दिया। जनता से लिए पैसे जब उसने नहीं लौटाए तो लोग पुलिस के पास पहुंचने लगे। ठगी के शिकार लोगों में तमाम ग्रामीणों के साथ ही खर्ब के अपने कई रिश्तेदार भी थे। सबने पंचायत व रिश्तेदारों से लेकर पुलिस व कोर्ट तक चक्कर लगा लिया, लेकिन उस समय ठग से विधायक बन चुके रणवीर के खिलाफ पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की। पुलिस की आर्थिक अपराध शाखा भी है, लेकिन सच्चाई यह है कि वह भी केवल छोटे-मोटे मामलों तक ही खुद को सीमित रखती है। जब तक ऊपर से दबाव अथवा मीडिया में हंगामा न खड़ा हो, सफेदपोशों पर इस शाखा से कोई कार्रवाई नहीं होती है। इस पानी वाले महाठग का मामला तो आज सबके संज्ञान में है, लेकिन अन्य मामले भी किसी न किसी रूप में पुलिस के सामने पहले भी जरूर आए होंगे। लेकिन उन्हें दबाने व कार्रवाई की लंबी प्रक्रिया के बहाने सफेदपोशों को बचाने तक ही पुलिस सीमित रहती है। यदि एक मामले में पुलिस कार्रवाई कर दे तो कई अन्य छिपे मामले भी तत्काल सामने आ जाएंगे। संभव है, कुछ लोग इन महाठगों के जाल से बच जाएं।

June 15, 2009

हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं

प्रिय यशवंत,
मैने जनसत्ता में नई पत्रकारिता पर आदरणीय प्रभाष जोशी जी के कालम कागद कारे के कुछ विषयों पर असहमति जताते हुए उनसे कुछ सवाल पूछे थे। पूरे हफ्ते इंतजार किया कि शायद उनकी ओर से अरविंद केजरीवाल के संबंध में की गई टिप्पणी तथा खबरों के बदले पैसा लिए जाने के विरोध के तरीके पर वे कोई जवाब देंगे। क्योंकि मेरा मानना है कि मुद्दा चाहे जितना गंभीर हो, यदि उसे सही ढंग से न उठाया जाए तो वह अपने प्रभाव तथा परिणाम दोनों से वंचित हो जाता है। फिलहाल जोशी जी ने इसका जवाब देना उचित नहीं समझा और उनकी ओर से जिन तीन लोगों ने आपको पत्र लिखा और जिसे भड़ास फार मीडिया पर प्रकाशित किया गया। वह केवल जोशी जी की महानता पर मेरी टिप्पणी को ओछी बताने तक ही सीमित रहा। असल सवाल जस का तस है कि क्या कुछ लोगों को गाली देने भर से प्रभाष जी पत्रकारिता का भला करने की सोच रहे हैं। यह गालीबाजी तो वे वर्षों से जनसत्ता में करते आ रहे हैं। पत्रकारिता की वतर्मान में भ्रष्ट होने की प्रक्रिया में कब और कहां वे कमी ला सके। यदि वे वास्तव में पत्रकारिता में घटित हो रहे कुछ खराब बातों को दुरुस्त करना चाहते हैं तो उसके लिए और भी रास्ते हो सकते हैं। यशवंत जी आपने जो तीनों पत्र श्री आलोक तोमर, दयानंद पांडेय तथा बिनय बिहारी सिंह की ओर से b4m पर प्रकाशित किया है वे किसी न किसी रूप में जनसत्ता से जुड़े रहे हैं। आपने चालाकी से यह सूचना छिपाया जो उचित नहीं था। बिनय बिहारी तो वर्तमान में भी जनसत्ता के कलकत्ता में रिपोर्टर हैं।
फिलहाल इन तीनों के पत्र पढ़ने के बाद मुझे लगा कि शायद मैने यह लेख जोशी जी के खिलाफ किसी अभियान के तहत लिखा है। लेकिन यह सच नहीं है। सच सिर्फ यह है कि जोशी जी जिस मुद्दे को पत्रकारिता के लिए कलंक बता रहे हैं। कमोवेश उससे हम भी सहमत हैं लेकिन उनके आंदोलन का तरीका निहायत गलत है जो कभी भी उनके कथित उद्देश्य को पूरा नहीं कर सकता है। इस विषय को समाज से कटे किसी संत की तरह नहीं बल्कि गृहस्थ परिवार के उस मुखिया की तरह हल ढूंढना चाहिए जिस पर पूरे परिवार की जिम्मेदारी होती है। इसीलिए मैं फिर से अपना सवाल दोहराता हूं कि अखबार व अखबार के मालिकों को गाली देने के एकालाप के बजाय इस पर संवाद की कोशिश शुरु होनी चाहिए। यह काम जोशी जी जैसे वरिष्ठ पत्रकार ही शुरु कर सकते हैं। गाली देकर वे कुछ लोगों की निगाह में महान पत्रकार बने रह सकते हैं किंतु पत्रकारिता का वे शायद ही कोई भला कर पाएं।
जोशी जी जैसों पर उंगली उठाकर हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं है। वे बड़े हैं लेकिन फिर भी मैं कुछ विनम्र सलाह उन्हें देना चाहूंगा। वर्तमान में ऐसा लगता है कि आलोक तोमर जैसे कुछ लोग उनके स्वयंभू प्रवक्ता हैं। वे अपने पत्र में मेरे बारे में न जाने क्या-क्या लिखते हैं। यदि बोलचाल में भी उनकी यही भाषा है तो मुझे समझ में नहीं आता कि उन्हें जनसत्ता ने इतने दिनों कैसे बर्दाश्त किया। वे एक ओर खुद को प्रभाष जी का सबसे स्वामिभक्त मानते हैं दूसरी ओर वे यह भी बताने से नहीं चूकते कि प्रभाष जी ने जिन लोगों का चयन किया और उत्तराधिकारी बनाया उनमें से ज्यादातर निकम्मे और कई तो बाकायदा भ्रष्ट निकले।, उनका यह कहना यह दर्शाता है कि प्रभाष जोशी जी को आदमियों की पहचान नहीं है। ऐसा हो सकता है क्योंकि सच्चे लोग प्रपंच व छल कपट वालों के झांसे में अक्सर आ जाते हैं। मैं सिर्फ इस बात में कुछ और जोड़ना चाहता हूं कि जोशी जी ने कई ऐसो लोगों को भी अपना आशीर्वाद दिया जो भाषा की शालीनता को न समझते हैं न उन्हें इसका शउर है। ऐसे लोगों में तोमर व पांडेय जैसे लोग भी शामिल हैं। उम्मीद है कि प्रभाष जी ऐसों को अपना प्रवक्ता बनने का मौका नहीं देंगे।
आलोक जी ने अपने पत्र में मेरी हिम्मत, तर्क व तथ्यों की बात उठायी है। तो मैं स्पष्ट करना चाहूंगा कि न तो मैं आलोक जी की तरह चंबल की पृष्टभूमि से आया हूं और न ही तिहाड़ में रहने का कोई मौका मिला है। इस लिहाज से आलोक जी मुझसे ज्यादा हिम्मती हो सकते हैं। हां अगर गाली गलौज को वे तर्क व तथ्य समझते हैं तो यह भी उन्हें ही मुबारक हो। जहां तक जनसत्ता को असफल अखबार बताने की बात है तो मैं यह कहना चाहूंगा कि, तूफान में तो तिनके भी आसमान पर पहुंच जाते हैं। इसका यह मतलब नहीं है कि वे हवाई जहाज अथवा पतंग की तरह हैं। जिन दिनों जनसत्ता अखबार पैदा हुआ था इमरजेंसी व कांग्रेसी भ्रष्टाचार के प्रति आम जनमानस में भारी रोष था। जनसत्ता ने शुरु होने के साथ ही भ्रष्टाचार पर जमकर लिखा। प्रभाष जोशी जी इसके अगुवा थे। उन दिनों मैं छात्र हुआ करता था। एक दिन पुराना अखबार भी एक दम ताजे अखबार की तरह पढ़ने का इंतजार रहता था। तब से काफी समय गुजर गया। दुनिया बदल गई, अखबारों की भाषा बदल गई, संपादक बदल गए। अगर कुछ नहीं बदला तो जनसत्ता अखबार। बड़ी पुरानी कहावत है कि मूर्ख व मृत लोग अपने विचार नहीं बदलते हैं। अब यह कहावत कितनी सही है हमें नहीं मालुम लेकिन न बदलने का खामियाजा इस अखबार को भुगतना पड़ा। और यह अखबार अब एक असफल अखबार बन चुका है।
अगर समय के साथ यह अखबार नहीं बदला तो इसके लिए अकेले मालिक को ही नहीं बल्कि संपादक को भी दोषी माना जाएगा। वह भले ही प्रभाष जोशी हों।
दयानंद पांडेय को तो खैर मैं लखनऊ से जानता हूं। मैं उन पर निजी टिप्पणी करके स्पेस खराब नहीं करना चाहता हूं। पांडेय जी से सिर्फ यही कहना चाहता हूं कि मंजिल तय करने के लिए सड़क पर चलना पड़ता है। चौराहे पर लगातार गोल चक्कर लगाने से कोई मंजिल हासिल नहीं होती है।
बृजेश सिंह

June 11, 2009

काजी जी दुबले क्यों? शहर के अंदेशे में

आदरणीय प्रभाष जोशी जी
मुझे नहीं मालुम कि आपके दिल में क्या है जो आप चुनाव में नेताओं के बयान वाली खबरों के अखबारों में पैसे लेकर छपने से इतने खफा हैं। लेकिन पिछले हफ्ते जनसत्ता में आपने जितना भी कागज काला किया उसमें आपने तमाम साफगोइयों के बावजूद अपनी कुंठाओं को छिपा नहीं सके। आप अच्छी तरह जानते हैं कि आप एक असफल अखबार के सफल संपादक हैं। प्रायः ऐसा होता नहीं है, लेकिन आप लोगों को यह मनवाने में सफल रहे। जिस जनसत्ता के आप संपादक हैं आज वह गली मोहल्लों में छपने वाले स्थानीय अखबारों से भी कम संख्या में लोगों द्वारा खरीदा व पढ़ा जाता है। यदि सार्थक पत्रकारिता के प्रति आम जनमानस का यह रवैया है तो इसमें आपकी कोई गलती नहीं है। अलबत्ता आपको ऐसे पाठकों के बारे में भी जरुर कुछ लिखना चाहिए। उम्मीद है भविष्य में आप इस पर जरुर कुछ लिखेंगे।
मैं विषय से भटक गया था हां मैं यह कह रहा था कि आपने नई पत्रकारिता के बहाने जो कुछ लिखा उसमें आप पत्रकारिता के प्रति चिंता कम केजरीवाल के मैग्सेसे पुरस्कार तथा उनके द्वारा बांटे जाने वाले आरटीआई
पुरस्कार के ज्यूरी में अखबार विशेष के संपादक को शामिल किए जाने का दर्द ज्यादा झलक रहा है। आपके अनुसार अरविंद केजरीवाल को मैग्सेसे पुरस्कार सिफारिश से मिला था। यह सिफारिश कब और किसने की यह आपने खुलासा नहीं किया। संपादक के नाते अभी भी आपको यह जरुर बताना चाहिए कि मैगसेसे पुरस्कार के लिए कहां कहां सिफारिश की जा सकती है। एक बात और नहीं समझ में आती है कि जिस केजरीवाल को आप सिफारिश से पुरस्कार हासिल करने वाला मानते हैं उसी केजरीवाल के माध्यम से आरटीआई के क्षेत्र में काम करने वाले लोगों के लिए शुरु किए जा रहे एक पुरुस्कार व उसकी ज्यूरी कमेटी को लेकर आप इतने संजीदा क्यों हैं। दिल्ली में न जाने कितनी संस्थायें न जाने जिन तिन ऐरे गैरे को पुरस्कार देती रहती हैं। आपने कभी उनके लिए कागज क्यों काला नहीं किया? क्या इस पुरस्कार से ज्यादा आप उस अखबार व संपादक से नाराज हैं जिसे केजरीवाल ने ज्यूरी बनाया है। यदि ऐसा है तो निश्चय ही आप विषय की बजाय व्यक्ति के प्रति अपनी निजी धारणा को तरजीह दे रहे हैं जो आपके पत्रकारिता के प्रति चिंता के दोगलेपन का उदाहरण है।
आदरणीय जोशी जी मैं नहीं जानता कि व्यक्ति के रूप में आप कैसे हैं परंतु आप अच्छे पत्रकार हैं तथा कलम के धनी हैं मैं यह मानता हूं। फिर भी इस लेख में आप अपने पत्रकारीय कौशल से भी अपनी भावना को छिपा नहीं सके हैं। सामान्य धारणा है कि चोरी करने वाला चोर होता है। किसी चोर की नैतिकता को मापने का यह कोई तरीका नहीं हो सकता कि उसने कितनी मात्रा में चोरी की थी। लेकिन आपने अपने कालम में लिखा है कि, (अरविन्द केजरीवाल ने यह पुरस्कार तय करने के लिए जो समिति बनाई है, उसमें ऐसे अखबार और उसके मालिक संपादक को भी रखा है, जिसने इस लोकसभा चुनाव में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार किया।)। सबसे ज्यादा पर अपने बहुत जोर दिया है। अब चुनाव में पैसे लेने वाले सभी अखबारों में किसी एक अखबार को आपने सबसे ज्यादा भ्रष्ट कैसे माना यह किसी भी आम आदमी की समझ में नहीं आ सकता है। क्योंकि नैतिक रूप से तो सबने एक ही नियम का उल्लंघन किया है। इससे यही झलकता है कि अखबार विशेष के प्रति आप निजी तौर पर जो राय रखते हैं संपादक व पत्रकार के रूप में आपने उसी भड़ास को जनसत्ता में लिख मारा है। यही नहीं आपका यह भी दावा है कि उक्त अखबार ने चुनाव में दो सौ करोड़ की काली कमाई की। निश्चय ही यह आंकड़े बाजी कोई नौसिखुआ पत्रकार करता तो नजरअंदाज करने वाली गलती मानी जा सकती है आप जैसे लोग यह गलती नादानी में नहीं कर सकते हैं। जो अनाम लोग आपके सूत्र हैं वैसे सूत्र हम पत्रकार किसी की भी बखिया उधेड़ने के लिए आए दिन गढ़ते रहते हैं। लेकिन आपकी वरिष्ठता व गरिमा के हिसाब से यह आंकड़ेबाजी आपको यह शोभा नहीं देती है।
हां आपने लखनऊ वाले लालजी टंडन का भी जिक्र किया है। लालजी टंडन के बारे में लखनऊ का हर अखबार वाला जानता है। थोड़ा बहुत यहां गाजियाबाद के लोग भी जानते हैं। शहरी विकास मंत्री के रूप में उनके कारनामें भी हम लोगों ने काफी करीब से देखे हैं। गाजियाबाद तथा नोएडा प्राधिकरणों में आज भी उन की चर्चा होती रहती है। यदि लालजी टंडन किसी का इस्तेमाल करें तो ठीक। और जब लालजी टंडन की टेंट कोई ढीली करा ले तो...। इससे ज्यादा हम उनके बारे में नहीं कहना चाहेंगे। आपको वे बाजपेई के उत्तराधिकारी के रूप में क्यूं महान नजर आते है हमें नहीं मालुम। हां मोहन सिंह राजनीति में भद्र लोगों में शुमार किए जाते हैं।
सामाजिक मुद्दों पर हंगामा करने वाले भाजपा व दक्षिणपंथी संगठनों के बारे में अक्सर दिल्ली के मठाधीश पत्रकार उन्हें स्वयंभू ठेकेदार कहकर आलोचना किया करते हैं। अब यही ठेकेदारी क्या मीडिया में भी नहीं हो रही है। हमें आत्म मुग्ध होने की जरूरत नहीं है यदि नए दौर की पत्रकारिता में कुछ गलत हो रहा है तो उसे नए दौर का पाठक खुद ही दुरुस्त भी कर लेगा। यह काम पुराने ठेकेदारों के बश का नहीं है। आज का पाठक पुराने पाठकों से ज्यादा चतुर व बुद्धिमान है। वैसे भी यह जरुरी नहीं है कि जो आज सच है जरूरी है वह कल भी सच हो और उतना ही जरूरी भी। बदलाव तो होगा ही। आप भरोसा रखें पहले से बेहतर होगा। कुछ अखबार मालिकों के गलत होने अथवा आपके कागद काला करने से इसे रोका नहीं जा सकता है। आने वाली पीढ़ी इसे खुद ही दुरुस्त कर लेगी।

June 08, 2009

एक था इंडियन कॉफी हाउस


दिल्ली को बसाने वाले लार्ड हार्डिग व सर एडविन लुटियंस ने राजधानी में कॉफी हाउस के लिए अलग से तो कोई जगह नहीं बनायी थी लेकिन कॉफी के शौकीन अंग्रेजों के लिए उन्होंने इम्पीरियल होटल में 1911 में ही एक कॉफी शाप जरूर खुलवा दिया था। उन दिनों यहां आम इंडियंस का आना जाना नहीं था। बाद में 1940 में अंग्रेजों ने कॉफी बोर्ड आफ इंडिया के माध्यम से देश के कुछ शहरों में कॉफी हाउस खोलना शुरू किया। हालांकि, आजादी मिलने के बाद वर्ष 1950 के मध्य कॉफी बोर्ड ने इन्हें बंद कर दिया। इन बंद कॉफी हाउस को खुलवाने में वामपंथी नेता एके गोपालन ने मदद की और कॉफी वर्कर्स कोआपरेटिव सोसायटी गठित कर 1957 में इन्हें दुबारा चालू कराया। इसी सोसायटी ने दिल्ली में अपना पहला इंडियन कॉफी हाउस कनाट प्लेस में 1957 में स्थापित किया। शायद देश में सहकारी आंदोलन का यह पहला प्रयास था। सहकारी आंदोलन को फेल हुए तो कई दशक बीत चुके हैं किंतु इंडियन कॉफी हाउस तमाम झंझावतों को झेलता हुआ अभी तक चल रहा था। लेकिन इस खबर को जब आप पढ़ रहे होंगे तो कनाट प्लेस स्थित मोहन सिंह पैलेस में इस कॉफी हाउस के बंद किए जाने के लिए सामान समेटा जा रहा होगा। औपचारिक रूप से 10 जून को इसे बंद कर दिया जाना है। इंडियन कॉफी हाउस का बंद होना सिर्फ एक दुकान का बंद होना नहीं बल्कि देश की अर्थव्यवस्था के एक प्रयोग का खात्मा है। क्योंकि, देश में कॉफी की उपयोगिता घटी नहीं है। देश में पूंजीवादी अर्थव्यवस्था लगातार फल फूल रही है। जिस समय कनाट प्लेस में बड़े बड़े नेताओं से संरक्षण हासिल कर इंडियन कॉफी हाउस की स्थापना की गई थी, उससे एक दशक पहले 1942 में एक अनाम से व्यापारी राजहंस कालरा ने कनाट प्लेस में ही यूनाइटेड कॉफी हाउस के नाम से एक दुकान खोली थी। आज वे करोड़ों के मालिक हैं। राजधानी के डिफेंस कालोनी सहित कई अन्य स्थानों पर यूनाइटेड कॉफी हाउस (यूसीएच) की शाखायें खुल चुकी हैं। अलबत्ता वे यह दावा तो नहीं करते होंगे कि उन्होंने देश को कई प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री दिए हैं अथवा वहां बैठकर लोग राष्ट्रपति बन चुके हैं, लेकिन वे आर्थिक रूप से सफल रहकर बदलती अर्थव्यवस्था से तालमेल बिठाने में कामयाब जरूर रहे। इंडियन कॉफी हाउस में तालाबंदी की खबर के बाद कॉफी कंज्यूमर फोरम की ओर से जारी दो पन्नों का बयान देखकर लगा कि इंडियन कॉफी हाउस, कॉफी हाउस न होकर कोई पुरातात्विक धरोहर है। जिसे संरक्षित किए जाने की गुहार की जा रही हो। भाई, धंधे को धंधे की तरह नहीं चलाओगे तो सरकार की दया पर और कितने दिन चल पाओगे। जमाना बदल रहा है। कॉफी हाउस का मतलब अब इंडियन कॉफी हाउस नहीं बल्कि बरिस्ता होता है। बड़े नेताओं के बेटे बेटियां बरिस्ता में बैठेंगे या नुक्कड़ की दुकान की तरह चलने वाले पुराने कहवाघर में। इंडियन कॉफी हाउस नो प्राफिट नो लॉस के आधार पर चलता रहा है। मायने इस संस्था के पल्ले कुछ भी नहीं है। भाई, अर्थशास्त्र को न भी मानो तो भारतीय जनमानस की आम धारणा को ध्यान में रखते कि गाढ़े दिनों के लिए कुछ तो बैंक बैलेंस होना चाहिए। जब दुनिया बदल रही थी तो तुम भी अपने को इन्हीं पैसों से अपग्रेट कर लेते, लेकिन ऐसा न हो सका। अब घाटे पर घाटा और उम्मीद यह कि सांसदों व विधायकों को मिलने वाले विकास मद से इस कॉफी हाउस को चलाया जाए। आगे क्या होगा यह मालूम नहीं मगर मेरा मानना है कि इसे हो सके तो दस जून तक इंतजार करने के बजाय आज ही बंद कर दिया जाए। जो खुद का बोझ न उठा सकता हो उसे दूसरे के कंधों पर बिठाकर कितनी दूर ले जाया जा सकता है। इंडियन कॉफी हाउस भले न रहे लेकिन कॉफी का कारोबार तो बना ही रहेगा।

June 01, 2009

सड़क पर पप्पुओं के खिलाफ हमें आपको भी आगे आना होगा

शहर की सड़कों पर लोगों को सुरक्षित रखने के लिए दिल्ली पुलिस फिर सप्ताह मना रही है। इसके तहत सप्ताह भर पूरे शहर में विशेष चौकसी, नियमों का पालन न करने वालों पर कार्रवाई, चालान, प्रेस कांफ्रेंस, अखबारों में उपलब्धियों की फोटो छपवाना जैसे काम शामिल रहेगा। उसके बाद? हम व आप तो अगले हफ्ते भी इसी सड़क से गुजरेंगे। तब क्या होगा? यही वह सवाल है जो पुलिस के सड़क सुरक्षा सप्ताह पर सवालिया निशान लगा देता है। हर साल यहां की सड़कों पर दो हजार से ज्यादा लोग दुर्घटना में दम तोड़ देते हैं। इनमें आधे से अधिक ऐसे लोग होते हैं जो किसी वाहन पर सवार नहीं होते, बल्कि पैदल चल रहे होते हैं। अब पुलिस हर वाहन चालक के पीछे तो चल नहीं सकती, इसलिए राजधानी में वाहन चलाने वालों के लिए सड़क के नियमों के प्रति ज्यादा सतर्कता के लिए सिर्फ पुलिस का सप्ताह व पखवाड़ा अभियान चलाना पर्याप्त नहीं होगा। जिस तरह दिल्ली के चुनाव में मतदान के लिए पप्पू अभियान में तमाम संगठन, मीडिया व संस्थाओं ने भागीदारी की थी, उसी तरह ट्रैफिक सेंस बहाल करने के लिए भी प्रयास करने की जरूरत है। लेकिन इससे पहले दिल्ली पुलिस खासकर ट्रैफिक पुलिस को अपना चाल-चलन सुधारना होगा। आम आदमी तभी इस अभियान से जुड़ेगा। नई दिल्ली के युवा सांसद अजय माकन दिल्ली वालों के सौभाग्य से केंद्र में गृह राज्यमंत्री बन गए हैं। वे भी अपनी साफ-सुथरी छवि का इस अभियान में इस्तेमाल कर सकते हैं। माकन साहब, वैसे भी चुनाव के दिनों में आपने रैली न निकालकर जताया था कि आप ट्रैफिक जाम से लोगों को बचाना चाहते हैं। अब आप जनता के सहयोग से मंत्री बन गए हैं तो लोगों को उम्मीद है कि सड़क पर ट्रैफिक से जाने वाले जिंदगियों को बचाने के लिए भी कुछ जरूर करेंगे। जब तक सड़क पर चलने वाला हर वाहन चालक व पैदल यात्री ट्रैफिक नियमों को दिल से इज्जत नहीं देगा, तब तक वह इस पर ईमानदारी से अमल भी नहीं करेगा। केवल चौराहों पर ट्रैफिक पुलिस खड़ी कर देने से अथवा चौराहों के पीछे छिपकर नियमों का उल्लंघन करने वालों को पकड़कर चालान काट देने भर से न तो सड़कों पर खूनी खेल थमेगा, न बहुमूल्य जिंदगियों को बचाया ही जा सकेगा।
दिल्ली पुलिस के मुखिया युद्धवीर सिंह डडवाल ने डेढ़ साल पहले जब पदभार संभाला था तो उन्होंने कहा था कि राजधानी में किसी भी अपराध से ज्यादा सड़क हादसों में लोगों की मौत होती है। वे प्राथमिकता के आधार ट्रैफिक व्यवस्था में सुधार करके इन मौतों पर अंकुश लगाएंगे। यदि वे अपने प्रयास से कुछ जिंदगियां बचा पाएं तो किसी भी अन्य अपराध को रोकने से यह काम ज्यादा महत्वपूर्ण होगा। लेकिन ऐसा हो न सका। लोग अब भी सड़कों पर कीड़े-मकोड़ों की तरह मर रहे हैं। जनवरी 2009 से अब तक पांच माह में राजधानी की सड़कों पर दुर्घटना में आठ सौ लोगों की जान जा चुकी है। इनमें से आधे लोग या तो पैदल राहगीर थे या सड़क पार कर रहे थे। ऐसा नहीं है कि इन हादसों में मरने वाले पैदल यात्रियों की गलतियां नहीं होती हैं, लेकिन यहां सवाल है कि दिल्ली की सड़कों पर सालाना होने वाली हजारों मौत का खेल आखिर कब तक जारी रहेगा। इसे रोकने के लिए केवल पुलिस ही नहीं हम सबको आगे आना होगा।