July 14, 2009

अर्थशास्त्र के नियमों से चलते हैं महानगरीय रिश्ते

निवार की सुबह उठकर हर रोज की तरह सबसे पहले अखबार देखने बैठ गया। अपराध की खबरों से भरे पन्नों पर नजर दौड़ाता रहा। मन में कुछ चटखने सा लगा। अखबारों में अपराध की खबरों का होना कोई नई बात नहीं थी, लेकिन शनिवार के अखबारों में ज्यादातर खबरें रिश्तों के कत्ल व भरोसे के खून से सराबोर थीं। राजौरी गार्डन में पत्नी ने पति का कत्ल करा दिया। महिला ने पति की हत्या के लिए अपने नए प्रेमी को ही पांच लाख की सुपारी दी थी। दूसरी खबर थी कि एक युवक ने अपनी नानी की हत्या इसलिए कर दी कि उसने गर्लफ्रेंड को घुमाने के लिए पैसे नहीं दिए। तीसरी खबर ईस्ट पटेल नगर में छात्रा की मौत के खुलासे से संबंधित थी। छात्रा की मौत उसके प्रेमी ने ही की थी क्योंकि उसे शक था कि वह लड़की अब किसी और के प्यार में पड़ गई है। कुछ पैसों के लेन-देन में दक्षिणी दिल्ली में एक युवक ने अपने बचपन के दोस्त को चाकू से गोदकर हत्या कर दी। भागते समय तीसरी मंजिल से गिरने के कारण वह खुद भी जान गंवा बैठा। महानगरीय जिंदगी में रिश्ते इतने कमजोर क्यूं हो रहे हैं। इस बारे में जानने के लिए दिनभर परेशान रहा। कई लोगों से पूछा। कई किताबों के पन्ने पलटे। सब कुछ करने के बाद जो समझ में आया यदि उसका निचोड़ निकालें तो सिर्फ यही कहा जा सकता है कि कभी मानवीय रिश्ते समाजशास्त्र के नियमों से चलते थे, लेकिन अब ये रिश्ते अर्थशास्त्र के नियमों पर बनने लगे हैं। रिश्तों में हो रहे बदलाव हमें अभी भी इसलिए चौंकाते हैं कि उन्हें आज भी समाजशास्त्र की कसौटी पर परखते हैं। ठीक अर्थशास्त्र के नियम की तरह रिश्ते अब त्याग के बजाय मांग पर आधारित हो गए हैं। इनका बने रहना भी हानि-लाभ के सिद्धांतों के अनुसार तय होने लगा है। इग्नू में जेनेटिक इंजीनियरिंग के प्रोफेसर हिमाद्रि राजधानी के इस सामाजिक बदलाव पर सटीक टिप्पणी करते हैं कि दिल्ली ने दो दशक में काफी तेज विकास किया है। विकास में सबसे अहम पैमाना धन का होता है। सफल व्यक्ति रिश्तों से अधिक अहमियत धन को देता है। आर्थिक दौड़ में शामिल लोगों के लिए रिश्तों की उलझन को निभाना बहुत तनावपूर्ण हो जाता है, लेकिन वे इस बदलाव को स्थायी नहीं मानते। उनके अनुसार भविष्य में फिर से रिश्तों को महत्व मिलेगा, लेकिन कब तक-इस बारे में अभी से अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है। प्रमुख समाजवैज्ञानिक अरुणा ब्रूटा भी मानती हैं कि महानगरीय समाज विकास की दौड़ में बने रहने के लिए बीमार बन गया है। भौतिकता का चरम व्यक्ति के व्यवहार तथा सोच को प्रभावित कर रही है, लेकिन लोगों का ध्यान अभी इस बीमारी की ओर नहीं जा रहा है। इसलिए हम इसके प्रति अभी भी सावधान नहीं हैं। महानगरीय जीवन में आने के बाद जब लोगों ने घर-बार छोड़ा तो कहा जाने लगा कि खून के रिश्ते से भी बेहतर होते हैं प्यार के रिश्ते। कुछ समय तक यह बहुत अच्छा निभा भी, लेकिन अब तरक्की की दौड़ में यह रिश्ते भी कलंकित होने लगे हैं। दोस्त व प्रेमी-प्रेमिकाओं की हत्याओं का सिलसिला इसी का नतीजा है। शारीरिक व भौतिक जरूरतों को पूरा कर पाने में असमर्थ हर रिश्ते टूटने के कगार पर खड़े नजर आते हैं। जो रिश्ते बाहर से बहुत मजबूत दिखते हैं, गहरे में उन्हें भी कहीं न कही आर्थिक व शारीरिक जरूरतों का मजबूत सहारा है। किसी कवि की ये लाइनें यहां मौजूं हैं- बाजार में बिकते हैं, हर मोल नए रिश्ते। कुछ वक्त लगा हमको, ये दिल को बताने में।