September 07, 2009

पर मेरी सरकार इन्हें रखोगे कहां

इन्हें पकड़ भी लोगे तो कहां रखोगे, क्योंकि दिल्ली में साठ हजार है इनकी आबादी


मुझे नहीं मालूम कि पेरिस में भिखारी होते हैं या नहीं, लेकिन दिल्ली को पेरिस बनाने में जुटीं मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के एक काबीना मंत्री ने घोषणा की है कि शहर को भिखमंगों से मुक्त (बेगर्स फ्री) करेंगे। इसके लिए मोबाइल कोर्ट सहित न जाने क्या-क्या इंतजाम करने की भी घोषणा की गई। सरकारी आंकड़ों व संसाधनों पर नजर डालें तो लगता है कि मंत्री जी शेखचिल्ली की तरह शहर को बना रहे हैं। राजधानी में इस समय 60 हजार भिखारी हैं। कानूनन सरकार ऐसे लोगों को भीख मांगते समय पकड़कर बेगर्स होम में रख सकती है। जहां उन्हें प्रशिक्षित कर कामकाज लायक बनाया जा सके। बच्चे हैं तो उन्हें पढ़ाने की व्यवस्था भी करनी होगी। दिल्ली में ऐसे कुल 11 होम्स हैं जहां भिखारियों को रखा जा सकता है। इन होम्स की कुल क्षमता 2200 लोगों के रहने की है। अब साठ हजार भिखारियों से दिल्ली को समाज कल्याण विभाग कैसे मुक्त कराएगा। इसकी न तो कोई योजना है और न ही कोई विधिक तरीका। यदि इनमें से आधे भी सरकारी मशीनरी की पकड़ में आ गए तो उन्हें कहां रखेंगे। कैसे प्रशिक्षण देंगे। कोई तैयारी नहीं। विभाग के एक अफसर से इस समस्या के बारे में पूछा तो उन्होंने पहले तो कहा कि सरकार ने पूरी व्यवस्था कर ली है। लेकिन बाद में योजना का खुलासा करने को कहा तो बोले कि देखो भाई जब तक दिल्ली में दान-पुण्य करने वाले रहेंगे तब तक भिखारी भी रहेंगे। यदि रोकना है तो पहले भीख देने वालों पर कार्रवाई होनी चाहिए और ऐसा कोई सरकार करेगी नहीं। जहां तक भिखारियों को दिल्ली से हटाने की बात है तो सच यह है कि सारी कोशिश यह होगी कि चौराहों पर भीख मांगने वाले न दिखाई दें। उसके लिए पुलिस की मदद से विभाग काम करेगा। मंदिर व मस्जिदों के बाहर तो उन्हें हटाना संभव नहीं है। अब भीख मांगना केवल मजबूरी नहीं है यह बाकायदा धंधा है। ऐसे लोगों को रोक पाना संभव नहीं होगा। जहां तक भिखारियों को बेगर्स होम्स में रखे जाने की बात है तो जो सरकार कामनवेल्थ के नाम पर भिखारियों को हटाने की बात कर रही है। वही सरकार जब खिलाडि़यों व खेल प्रेमियों के रहने के लिए पर्याप्त व्यवस्था नहीं कर पा रही है तो भिखारियों के लिए कितना इंतजाम करेगी यह सोचना ही फिजूल है।

September 04, 2009

न ग्लैमर न पैसा, फिर चुनाव कैसा

हवा में उड़े यही पम्पलेट बने छात्र नेताओं के जी के जंजाल


लका लांबा, रागिनी नायक, अमृता धवन, अमृता बाहरी, नूपुर ये नाम उन सुंदरियों के हैं जो पिछले कुछ सालों में दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ चुनाव में छाई रहीं। ग्लैमर व अकूत पैसे के सहारे छात्र राजनीति पर कब्जा करने की यह होड़ पिछले साल तक छाई रही। छात्र राजनीति से दूर-दूर तक रिश्ता न होने के बावजूद तमाम छुटभैए नेता इस मौसम में नजारे लेने के लिए कैंपस में चक्कर लगाते देखे जाते थे लेकिन लगता है इस बार उन्हें निराशा हाथ लगेगी। संगठनों ने जहां इस बार सुंदरियों पर दांव लगाने से कुछ परहेज किया वहीं आचार संहिता के नाम पर कई धनबली संभावित उम्मीदवार मैदान के बाहर खड़े कर दिए गए। यद्यपि विश्वविद्यालय प्रशासन की पूरी कार्रवाई बेहद संदेहास्पद है फिर भी छात्र राजनीति में पैसे के बूते सिक्का चलाने वालों के खिलाफ कार्रवाई स्वागत योग्य है। दीपक नेगी कभी विद्यार्थी परिषद से जुड़े रहे लेकिन कहते हैं कि पैसे में बड़ा दम होता है। इस बार एनएसयूआई ने उन्हें अध्यक्ष पद पर चुनाव लड़ाने का फैसला लिया था। चुनाव के लिए नामांकन के समय उन्होंने अपने पैसे का दम लोगों को जमकर दिखाया भी, लेकिन यहीं गलती हो गई। पिछली बार ऐसी ही गलती करने वाले कुछ छात्र नेता बच गए थे लेकिन इस बार न केवल नेगी बल्कि एबीबीपी के अध्यक्ष पद के उम्मीदवार रोहित चहल सहित सात लोगों को चुनाव लड़ने से वंचित कर दिया गया। इन सभी पर आरोप लगा है कि उन्होंने लिंगदोह कमेटी की सिफारिशों का उल्लंघन करते हुए नामांकन के समय छपे हुए पंपलेट कैंपस में बंटवाए। यह बाहुबली व धनबली ही नहीं बल्कि नियमों के उल्लंघन के मामले में एनएसयूआई की बागी प्रत्याशी अनुराधा का पत्ता कट गया। एनएसयूआई ने अर्शदीप कौर को सचिव का टिकट दिया है। एबीवीपी से भी इस बार अध्यक्ष पद के लिए एक सुंदरी ने चुनाव लड़ने के लिए नामांकन किया था। साक्षी अरोरा नाम की इस सुकन्या को रोहित चहल की पहुंच के आगे हार माननी पड़ी। विद्यार्थी परिषद किसी अन्य पद के लिए साक्षी को टिकट देने को तैयार था किंतु वह अध्यक्ष के टिकट से नीचे तैयार न हुई। अब चौधरी का भी पत्ता कट गया तो लगता है कि किसी तीसरे के ही भाग्य से छींका टूटा है। हर साल डीयू के इस चुनावी मुलम्मे में मजा लूटने वाले लोगों को कुछ निराशा जरूर हो सकती है। क्योंकि प्रचार के नाम पर रोज लाखों खर्च करने वाले प्रत्याशी न होंगे और आंख सेंकने के लिए ग्लैमर भी न होगा तो चुनाव क्या खाक जमेगा। डीयू जेएनयू तो है नहीं कि यहां बौद्धिक बहसें होंगी। यहां तो वे सारे दांव आजमाए जाते हैं जो राजनीति के अखाड़े में आजमाए जा चुके हैं। जैसे शहरी व देहात का मुद्दा। स्थानीय व बाहरी का मुद्दा। जाट व गुर्जर का मुद्दा। अगर यहां कोई चर्चा नहीं होती है तो वह है छात्र हित व पढ़ने-पढ़ाने की। दिल्ली की राजनीति में सीधी इंट्री दिलाने वाले डीयू छात्रसंघ का चुनाव इतना सात्विक होगा तो पार्टियों को वैसे दमदार नेता कैसे मिलेंगे जिनकी आजकल काफी डिमांड रहती है। पढ़ाकू टाइप का कोई छात्र चुनाव जीत भी गया तो भाई लोग उसे राजनीति में ले जाकर क्या करेंगे। निश्चय ही यह हमारे राजनेताओं व चुनाव के दिनों मुफ्त दारू-बोटी उड़ाने वालों के लिए चिंता का विषय हो सकता है लेकिन उन छात्रों को कुछ सुकून मिल सकेगा जो चुनाव की हर साल होने वाली धींगामुश्ती से परेशान रहते हैं। लिंगदोह कमेटी की रिपोर्ट को तीन साल बाद ही सही, ठीक ढंग से लागू करने के लिए प्रशासन को बधाई।