August 26, 2009

अफसर उवाच। सारी गलती इंद्र देव की

एक दिन की बारिश में सड़के बनी नाला, नेता व अफसर कर रहे हैं चिकचिक


राजधानी दिल्ली में पैसा है, रुतबा है लेकिन यदि नहीं दिखता तो सुखी व खुशहाल समाज। जिनके पास नहीं है उन्हें हर हाल में चाहिए चाहे जो करना पड़े और जिनके पास है उन्हें और चाहिए। दिल्ली के लोगों का यही जीवन दर्शन बनता जा रहा है। पिछले एक हफ्ते में शहर की गतिविधियों पर नजर डालें तो लगता ही नहीं कि यहां कुछ ऐसा हो रहा है जो पुरसुकून हो। पिछले हफ्ते जब मैं यह कालम लिख रहा था तो रिमझिम फुहारों के बीच लालकिले पर प्रधानमंत्री का भाषण चल रहा था। उन्होंने समस्याओं के अंबार के बीच ढेर सारी उम्मीदों की रोशनी बिखेरी। लगता था अपनी दिल्ली भी अब खुश रहेगी। ज्यादा न सही दो चार हफ्ते प्रधानमंत्री के भाषण का असर होने की तो उम्मीद थी ही लेकिन ऐसा हो न सका। शनिवार के भाषण के बाद सोमवार को सेंसेक्स छह सौ अंक से भी अधिक नीचे औंधे मुंह गिर गया। पैसे से पैसा बनाने वाले भाई लोग टेंशन में आ गए। दूसरी ओर सड़क पर लोगों का आटो वालों ने पसीना निकाल दिया। शहर में आटो वालों की हड़ताल व गुंडागर्दी दो दिन तक बेरोकटोक चलती रही। यद्यपि अपने सरदार जी ने टेंपो वालों को हड़काकर थोड़ा उम्मीद बंधाई कि पब्लिक की न सुनने वाले आटो वालों की भी नहीं सुनी जाएगी। अभी इस समस्या से निपटे भी न थे कि बारिश से कुछ धीमे पड़े स्वाइन फ्लू ने राजधानी में पहली बार किसी की जान ले ली। देश में भले ही इस बीमारी से मरने वालों का आंकड़ा पचास के आसपास पहुंचने वाला था लेकिन दिल्ली में यह पहली मौत थी। लोग फिर से इस विदेशी बीमारी से सहम गए। स्कूलों को कहा गया कि वे बच्चों से प्रेयर न कराएं। दुख में प्रभु का सुमिरन करने वाले देसी मन मानस को यह फैसला कुछ हजम नहीं हुआ लेकिन बच्चों की सुरक्षा की बात थी कुछ स्कूलों ने सरकार की बात मानी और सुबह की प्रेयर बंद हो गई। शुक्रवार का दिन फिर शहर वालों पर भारी पड़ा। इंद्रदेवता मेहरबान हुए और दोपहर बाद जमकर बारिश हुई। होना तो यह चाहिए था कि लोग खुश होते। इस बारिश ने जहां गर्मी से राहत दिलाई वहीं किसी हद तक किसानों व खेती के लिए भी यह फायदेमंद हो सकती है। लेकिन यहां तो दफ्तरों में दिनभर देश का भविष्य बांचने वाले बाबू लोग जब शाम को घर के लिए निकले तो चहुंओर पानी व ट्रैफिक का रेला। प्रतिदिन पीक आवर में रेंगने वाला ट्रैफिक बारिश के चलते थम सा गया था। ऐरों गैरों की तो छोड़ो राहुल बाबा तक को मेट्रो का सहारा लेना पड़ा। आधे घंटे की बरसात का पानी न जाने कहां-कहां घुस गया लेकिन जिन नालों व नालियों में घुसना था वहां का रास्ता बंद मिला। नाले व नालियों के नाम पर करोड़ों डकारने वाले अफसरों ने समस्या को जानने के लिए बैठक की। सबने मिलकर यह निष्कर्ष निकाला कि गलती किसी विभाग व अफसर की नहीं बल्कि इंद्रदेवता की है। भला इतनी जोर से बरसने की क्या जरूरत? आराम से रिमझिम-रिमझिम रात भर बारिश होती और सुबह दफ्तर के टाइम बारिश बंद हो जाती तो किसी को दिक्कत नहीं आती। अब बाबुओं की यह रिपोर्ट इंद्र देवता तक कैसे पहुंचे मालुम नहीं।

August 03, 2009

और चकरू गए चकराय

वि सम्मेलनों में अपनी वाकपटुता से बड़े बड़ों को धराशायी कर देने वाले प्रसिद्ध हास्य कवि अशोक चक्रधर हिंदी अकादमी में पहुंचकर खुद ही चकरा गए हैं। उन्हें अपनों ने ही अचानक जता दिया कि वे हिंदी साहित्यकारों की बिरादरी में ओबीसी की हैसियत रखते हैं। उन्होंने भले ही मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की निकटता व कांग्रेस के लिए चुनाव में नारे लिखकर अकादमी में उपाध्यक्ष की कुर्सी हथिया ली हो, लेकिन साहित्य बिरादरी के कुछ लोग उन्हें साहित्यकार मानने को ही तैयार नहीं है। अशोक जी ने जब से यह सुना है कि हिंदी के साहित्यकार उन्हें बिरादरी का मानते ही नहीं है, वे सन्न हैं। अब न वे मुंह खोल रहे हैं और न कुछ बोल रहे हैं। हुआ कुछ यूं कि कुछ दिन पहले जब दिल्ली सरकार ने उन्हें हिंदी अकादमी का उपाध्यक्ष मनोनीत किया तो वे अपने स्वभाव के अनुसार कुछ स्थानों पर चहकते हुए गंभीर साहित्य व मंचीय साहित्य पर कुछ बोल गए। क्या बोला क्यों बोला यह तो जगजाहिर नहीं हुआ लेकिन दिल्ली सरकार की ओर से अकादमी संचालन समिति में मनोनीत तमाम सदस्य साहित्यकारों ने उन्हें आड़े हाथों ले लिया। सिर मुंडाते ओले पड़े वाली कहावत हुई। उपाध्यक्ष बनने के बाद अभी तो कोई बैठक भी नहीं हुई थी। सदस्यों के साथ उपाध्यक्ष की औपचारिक मुलाकात भी नहीं हुई कि अकादमी में वितंडा खड़ा हो गया। चर्चित साहित्यकार अर्चना वर्मा ने अकादमी के संचालन समिति से इस्तीफा दे दिया। उनके कुछ दिन बाद अकादमी के सचिव व साहित्यकार ज्योतिष जोशी ने भी इस्तीफा दे दिया। कभी अशोक चक्रधर के गुरु रह चुके वरिष्ठ साहित्यकार नित्यानंद तिवारी ने भी अकादमी से नाता तोड़ने की घोषणा कर दी। साहित्य जगत में अशोक चक्रधर से नाराज साहित्यकारों का खुला आरोप है कि अशोक चक्रधर को कांग्रेस की सेवा करने के फलस्वरूप अकादमी में उपाध्यक्ष पद मिला है। वे अब अकादमी को भी राजनीति का अड्डा बना देंगे। उधर इन हमलों से चकराए अशोक चक्रधर का कहना है कि अभी तो हमने कुछ किया ही नहीं। चकरू (अशोक चक्रधर का उपनाम) खुलकर पूरे प्रकरण पर कुछ बोलने को तैयार नहीं है। चकरू भले ही अपनी राजनैतिक वफादारी व इनाम पर कुछ भी सार्वजनिक रूप से बोलने को तैयार न हो लेकिन उनके विरोधी जमकर हमले कर रहे हैं। चकरू के विरोधी हैं तो कुछ साहित्यकार उनका समर्थन भी कर रहे हैं लेकिन मंचीय व गंभीर साहित्य की धारा के बीच राजनीति की पेंच के चलते कोई खुलकर उनके समर्थन में नहीं आना चाह रहा है। उधर चकरू सिर झुकाकर इस तूफान के गुजरने का इंतजार कर रहे हैं। ताजा हालात पर उनकी ही एक कविता यहां मौजूं है।
कह चकरू चकराय, अक्ल, क्या कहती।
नहीं प्रशंसा, निंदा ही है जिंदा रहती।