दोस्तों लंबे समय बाद कुछ लिखने की मनःस्थिति बना पाया हूं। ये जो शहर है दिल्ली यहां कुछ लोग पूरे शहर को अपने हिसाब से चलाते हैं जबकि ज्यादातर लोग शहर के हिसाब से चलने को मजबूर होते हैं। यह शहर कई बार आपकी प्राथमिकताओं को बदल देता है। रोज कुछ लिखूं पर यह हो नहीं पाता है।
दिल्ली में इन दिनों राजनीति का मौसम है। पार्टियों द्वारा टिकट का वितरण लगभग पूरा हो चुका है। किसको क्यों टिकट मिला क्यों कट गया इस पर बहुत कुछ अखबारों में लिखा जा चुका है। चैनल दिन रात संतुष्ट व असंतुष्ट नेताओं के चेहरे दिखा रहे हैं। किंतु यदि ध्यान दें तो इस लोकतंत्र के कथित पावन पर्व में नहीं दिख रहा है तो दिल्ली का आम आदमी। आखिर दिल्ली में सरकार बनाने वाले ही इस सरकार के गठन के समय अदृश्य क्यों हैं। नेता अपने तरीके से बता रहे हैं की दिल्ली के लोगों की दिक्कत क्या है। उन्हें क्यों कांग्रेस अथवा भाजपा को वोट नहीं देना चाहिए। नेता ही तय कर रहे हैं कि जनता इस चुनाव में किस आधार पर अपने विधायक को चुने। वास्तव में दिल्ली के लोग दिल्ली की प्रदेश सरकार से क्या चाहते हैं। उन्हें दिल्ली की शीला सरकार से क्या शिकायत थी अथवा आने वाले समय में वे दिल्ली में किसकी कैसी सरकार चाहते हैं। यह न तो किसीको जानने की फुरसत है और न ही जरुरत। लोग भी मीडिया में देख पढ व सुन रहे हैं कि दिल्ली में चुनाव हो रहे हैं किंतु वे खुद को इस चुनाव से कहीं जुड़ा नही महसूस कर रहे हैं। कुछ राजनीतिक कार्यकर्ताओं, सत्ता के दलालों अथवा मीडिया को छोड़ दें तो दिल्ली में कहीं चुनाव को लेकर कोई विचार व मंथन नहीं दिखाई दे रहा है। क्या सही मायने में किसी लोकतांत्रिक सरकार के चुने जाने के समय आम आदमी की यह उदासीनता लोकतंत्र की सफलता पर सवालिया निशान नहीं लगाता है? हो सकता है कि नेताओं को कोई फर्क नहीं पड़े, अफसर भी चुनाव की प्रक्रिया को पूरा कर लें। कोई मुख्यमंत्री तो कोई मंत्री की कुर्सी पर जम जाए। अगले पांच साल तक जनता की मर्जी के नाम पर वे फैसले लेते रहें। लेकिन आखिर कब तक यह सब चलेगा। जब लोगों को इस तंत्र पर भरोसा ही नहीं रह जायेगा तो इस तंत्र की अहमियत भी नहीं रह जाएगी। जिसके चलते सरकारों के फैसलों पर लोग महत्व देना छोड़ देंगे। सरकारों की विश्वसनीयता गिरते ही पूरा लोकतंत्र ढहने की कगार पर पहुंच जाएगा। इस सब के बाद क्या होगा इसका सिर्फ अनुमान लगाया जा सकता है।