एक दिन की बारिश में सड़के बनी नाला, नेता व अफसर कर रहे हैं चिकचिक
राजधानी दिल्ली में पैसा है, रुतबा है लेकिन यदि नहीं दिखता तो सुखी व खुशहाल समाज। जिनके पास नहीं है उन्हें हर हाल में चाहिए चाहे जो करना पड़े और जिनके पास है उन्हें और चाहिए। दिल्ली के लोगों का यही जीवन दर्शन बनता जा रहा है। पिछले एक हफ्ते में शहर की गतिविधियों पर नजर डालें तो लगता ही नहीं कि यहां कुछ ऐसा हो रहा है जो पुरसुकून हो। पिछले हफ्ते जब मैं यह कालम लिख रहा था तो रिमझिम फुहारों के बीच लालकिले पर प्रधानमंत्री का भाषण चल रहा था। उन्होंने समस्याओं के अंबार के बीच ढेर सारी उम्मीदों की रोशनी बिखेरी। लगता था अपनी दिल्ली भी अब खुश रहेगी। ज्यादा न सही दो चार हफ्ते प्रधानमंत्री के भाषण का असर होने की तो उम्मीद थी ही लेकिन ऐसा हो न सका। शनिवार के भाषण के बाद सोमवार को सेंसेक्स छह सौ अंक से भी अधिक नीचे औंधे मुंह गिर गया। पैसे से पैसा बनाने वाले भाई लोग टेंशन में आ गए। दूसरी ओर सड़क पर लोगों का आटो वालों ने पसीना निकाल दिया। शहर में आटो वालों की हड़ताल व गुंडागर्दी दो दिन तक बेरोकटोक चलती रही। यद्यपि अपने सरदार जी ने टेंपो वालों को हड़काकर थोड़ा उम्मीद बंधाई कि पब्लिक की न सुनने वाले आटो वालों की भी नहीं सुनी जाएगी। अभी इस समस्या से निपटे भी न थे कि बारिश से कुछ धीमे पड़े स्वाइन फ्लू ने राजधानी में पहली बार किसी की जान ले ली। देश में भले ही इस बीमारी से मरने वालों का आंकड़ा पचास के आसपास पहुंचने वाला था लेकिन दिल्ली में यह पहली मौत थी। लोग फिर से इस विदेशी बीमारी से सहम गए। स्कूलों को कहा गया कि वे बच्चों से प्रेयर न कराएं। दुख में प्रभु का सुमिरन करने वाले देसी मन मानस को यह फैसला कुछ हजम नहीं हुआ लेकिन बच्चों की सुरक्षा की बात थी कुछ स्कूलों ने सरकार की बात मानी और सुबह की प्रेयर बंद हो गई। शुक्रवार का दिन फिर शहर वालों पर भारी पड़ा। इंद्रदेवता मेहरबान हुए और दोपहर बाद जमकर बारिश हुई। होना तो यह चाहिए था कि लोग खुश होते। इस बारिश ने जहां गर्मी से राहत दिलाई वहीं किसी हद तक किसानों व खेती के लिए भी यह फायदेमंद हो सकती है। लेकिन यहां तो दफ्तरों में दिनभर देश का भविष्य बांचने वाले बाबू लोग जब शाम को घर के लिए निकले तो चहुंओर पानी व ट्रैफिक का रेला। प्रतिदिन पीक आवर में रेंगने वाला ट्रैफिक बारिश के चलते थम सा गया था। ऐरों गैरों की तो छोड़ो राहुल बाबा तक को मेट्रो का सहारा लेना पड़ा। आधे घंटे की बरसात का पानी न जाने कहां-कहां घुस गया लेकिन जिन नालों व नालियों में घुसना था वहां का रास्ता बंद मिला। नाले व नालियों के नाम पर करोड़ों डकारने वाले अफसरों ने समस्या को जानने के लिए बैठक की। सबने मिलकर यह निष्कर्ष निकाला कि गलती किसी विभाग व अफसर की नहीं बल्कि इंद्रदेवता की है। भला इतनी जोर से बरसने की क्या जरूरत? आराम से रिमझिम-रिमझिम रात भर बारिश होती और सुबह दफ्तर के टाइम बारिश बंद हो जाती तो किसी को दिक्कत नहीं आती। अब बाबुओं की यह रिपोर्ट इंद्र देवता तक कैसे पहुंचे मालुम नहीं।
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