आज कई दिनों के बाद सोच रहा था कि ब्लाग पर कुछ लिखा जाए। लेकिन आखिर वह क्या बात है जिसे हम लोगों को बताना चाहें। काफी देऱ से यह विचार कर ही रहा था कि एक व्यक्ति में मेरे पास आया और एक लिफाफा देकर बिना कुछ कहे चला गया। उत्सुकतावश मैने उसे खोला तो उसमें ब्लैक एंड ह्वाइट रंग तस्वीर वाली एक मैगजीन थी। समाज के विभिन्न तबकों के हितों के लिए कुछ न कुछ करते रहने वाले एक संगठन ने इस मैगजीन को निकाला था। मैगजीन का कवर स्टोरी राजधानी में गुम होते बच्चों पर आधारित थी। इस पुस्तक में बड़े ही विस्तार से दिल्ली में गायब हो रहे बच्चों के बारे में जानकारी थी। लब्बो लुबाब यह था कि हजारों की संख्या में गुम होने वाले इन बच्चों में से ज्यादातर गरीब परिवारों के बच्चे होते हैं। जिनकी फिकर सिर्फ चुनाव के दिनों में नेता लोग कर लेते हैं आइंदा किसे फुरसत है कि गरीब के साथ क्या हो रहा है। इस मैगजीन में किए गए दावों को अगर माने तो दिल्ली पुलिस ने बच्चों के गायब होने के ९० प्रतिशत मामलों को दर्ज ही नहीं किया है। रिपोर्ट में सबसे अधिक पुलिस के संवेदनहीन रवैये का जिक्र किया गया है। जैसे जब गरीब घरों के लोग बच्चों के गायब होने के बाद थानों में जाकर पुलिस से उन्हें ढूंढ़ने में मदद करने को कहते हैं तो वे कहते हैं कि '' बच्चा गायब हो गया तो क्या हुआ, और पैदा कर लो। ''
इस पत्रिका में ८२ बच्चों के बारे मे डिटेल भी दी गई है।
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