नई दिल्ली को बसाने वाले लार्ड हार्डिग व सर एडविन लुटियंस ने राजधानी में कॉफी हाउस के लिए अलग से तो कोई जगह नहीं बनायी थी लेकिन कॉफी के शौकीन अंग्रेजों के लिए उन्होंने इम्पीरियल होटल में 1911 में ही एक कॉफी शाप जरूर खुलवा दिया था। उन दिनों यहां आम इंडियंस का आना जाना नहीं था। बाद में 1940 में अंग्रेजों ने कॉफी बोर्ड आफ इंडिया के माध्यम से देश के कुछ शहरों में कॉफी हाउस खोलना शुरू किया। हालांकि, आजादी मिलने के बाद वर्ष 1950 के मध्य कॉफी बोर्ड ने इन्हें बंद कर दिया। इन बंद कॉफी हाउस को खुलवाने में वामपंथी नेता एके गोपालन ने मदद की और कॉफी वर्कर्स कोआपरेटिव सोसायटी गठित कर 1957 में इन्हें दुबारा चालू कराया। इसी सोसायटी ने दिल्ली में अपना पहला इंडियन कॉफी हाउस कनाट प्लेस में 1957 में स्थापित किया। शायद देश में सहकारी आंदोलन का यह पहला प्रयास था। सहकारी आंदोलन को फेल हुए तो कई दशक बीत चुके हैं किंतु इंडियन कॉफी हाउस तमाम झंझावतों को झेलता हुआ अभी तक चल रहा था। लेकिन इस खबर को जब आप पढ़ रहे होंगे तो कनाट प्लेस स्थित मोहन सिंह पैलेस में इस कॉफी हाउस के बंद किए जाने के लिए सामान समेटा जा रहा होगा। औपचारिक रूप से 10 जून को इसे बंद कर दिया जाना है। इंडियन कॉफी हाउस का बंद होना सिर्फ एक दुकान का बंद होना नहीं बल्कि देश की अर्थव्यवस्था के एक प्रयोग का खात्मा है। क्योंकि, देश में कॉफी की उपयोगिता घटी नहीं है। देश में पूंजीवादी अर्थव्यवस्था लगातार फल फूल रही है। जिस समय कनाट प्लेस में बड़े बड़े नेताओं से संरक्षण हासिल कर इंडियन कॉफी हाउस की स्थापना की गई थी, उससे एक दशक पहले 1942 में एक अनाम से व्यापारी राजहंस कालरा ने कनाट प्लेस में ही यूनाइटेड कॉफी हाउस के नाम से एक दुकान खोली थी। आज वे करोड़ों के मालिक हैं। राजधानी के डिफेंस कालोनी सहित कई अन्य स्थानों पर यूनाइटेड कॉफी हाउस (यूसीएच) की शाखायें खुल चुकी हैं। अलबत्ता वे यह दावा तो नहीं करते होंगे कि उन्होंने देश को कई प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री दिए हैं अथवा वहां बैठकर लोग राष्ट्रपति बन चुके हैं, लेकिन वे आर्थिक रूप से सफल रहकर बदलती अर्थव्यवस्था से तालमेल बिठाने में कामयाब जरूर रहे। इंडियन कॉफी हाउस में तालाबंदी की खबर के बाद कॉफी कंज्यूमर फोरम की ओर से जारी दो पन्नों का बयान देखकर लगा कि इंडियन कॉफी हाउस, कॉफी हाउस न होकर कोई पुरातात्विक धरोहर है। जिसे संरक्षित किए जाने की गुहार की जा रही हो। भाई, धंधे को धंधे की तरह नहीं चलाओगे तो सरकार की दया पर और कितने दिन चल पाओगे। जमाना बदल रहा है। कॉफी हाउस का मतलब अब इंडियन कॉफी हाउस नहीं बल्कि बरिस्ता होता है। बड़े नेताओं के बेटे बेटियां बरिस्ता में बैठेंगे या नुक्कड़ की दुकान की तरह चलने वाले पुराने कहवाघर में। इंडियन कॉफी हाउस नो प्राफिट नो लॉस के आधार पर चलता रहा है। मायने इस संस्था के पल्ले कुछ भी नहीं है। भाई, अर्थशास्त्र को न भी मानो तो भारतीय जनमानस की आम धारणा को ध्यान में रखते कि गाढ़े दिनों के लिए कुछ तो बैंक बैलेंस होना चाहिए। जब दुनिया बदल रही थी तो तुम भी अपने को इन्हीं पैसों से अपग्रेट कर लेते, लेकिन ऐसा न हो सका। अब घाटे पर घाटा और उम्मीद यह कि सांसदों व विधायकों को मिलने वाले विकास मद से इस कॉफी हाउस को चलाया जाए। आगे क्या होगा यह मालूम नहीं मगर मेरा मानना है कि इसे हो सके तो दस जून तक इंतजार करने के बजाय आज ही बंद कर दिया जाए। जो खुद का बोझ न उठा सकता हो उसे दूसरे के कंधों पर बिठाकर कितनी दूर ले जाया जा सकता है। इंडियन कॉफी हाउस भले न रहे लेकिन कॉफी का कारोबार तो बना ही रहेगा।
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