प्रिय यशवंत,
मैने जनसत्ता में नई पत्रकारिता पर आदरणीय प्रभाष जोशी जी के कालम कागद कारे के कुछ विषयों पर असहमति जताते हुए उनसे कुछ सवाल पूछे थे। पूरे हफ्ते इंतजार किया कि शायद उनकी ओर से अरविंद केजरीवाल के संबंध में की गई टिप्पणी तथा खबरों के बदले पैसा लिए जाने के विरोध के तरीके पर वे कोई जवाब देंगे। क्योंकि मेरा मानना है कि मुद्दा चाहे जितना गंभीर हो, यदि उसे सही ढंग से न उठाया जाए तो वह अपने प्रभाव तथा परिणाम दोनों से वंचित हो जाता है। फिलहाल जोशी जी ने इसका जवाब देना उचित नहीं समझा और उनकी ओर से जिन तीन लोगों ने आपको पत्र लिखा और जिसे भड़ास फार मीडिया पर प्रकाशित किया गया। वह केवल जोशी जी की महानता पर मेरी टिप्पणी को ओछी बताने तक ही सीमित रहा। असल सवाल जस का तस है कि क्या कुछ लोगों को गाली देने भर से प्रभाष जी पत्रकारिता का भला करने की सोच रहे हैं। यह गालीबाजी तो वे वर्षों से जनसत्ता में करते आ रहे हैं। पत्रकारिता की वतर्मान में भ्रष्ट होने की प्रक्रिया में कब और कहां वे कमी ला सके। यदि वे वास्तव में पत्रकारिता में घटित हो रहे कुछ खराब बातों को दुरुस्त करना चाहते हैं तो उसके लिए और भी रास्ते हो सकते हैं। यशवंत जी आपने जो तीनों पत्र श्री आलोक तोमर, दयानंद पांडेय तथा बिनय बिहारी सिंह की ओर से b4m पर प्रकाशित किया है वे किसी न किसी रूप में जनसत्ता से जुड़े रहे हैं। आपने चालाकी से यह सूचना छिपाया जो उचित नहीं था। बिनय बिहारी तो वर्तमान में भी जनसत्ता के कलकत्ता में रिपोर्टर हैं।
फिलहाल इन तीनों के पत्र पढ़ने के बाद मुझे लगा कि शायद मैने यह लेख जोशी जी के खिलाफ किसी अभियान के तहत लिखा है। लेकिन यह सच नहीं है। सच सिर्फ यह है कि जोशी जी जिस मुद्दे को पत्रकारिता के लिए कलंक बता रहे हैं। कमोवेश उससे हम भी सहमत हैं लेकिन उनके आंदोलन का तरीका निहायत गलत है जो कभी भी उनके कथित उद्देश्य को पूरा नहीं कर सकता है। इस विषय को समाज से कटे किसी संत की तरह नहीं बल्कि गृहस्थ परिवार के उस मुखिया की तरह हल ढूंढना चाहिए जिस पर पूरे परिवार की जिम्मेदारी होती है। इसीलिए मैं फिर से अपना सवाल दोहराता हूं कि अखबार व अखबार के मालिकों को गाली देने के एकालाप के बजाय इस पर संवाद की कोशिश शुरु होनी चाहिए। यह काम जोशी जी जैसे वरिष्ठ पत्रकार ही शुरु कर सकते हैं। गाली देकर वे कुछ लोगों की निगाह में महान पत्रकार बने रह सकते हैं किंतु पत्रकारिता का वे शायद ही कोई भला कर पाएं।
जोशी जी जैसों पर उंगली उठाकर हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं है। वे बड़े हैं लेकिन फिर भी मैं कुछ विनम्र सलाह उन्हें देना चाहूंगा। वर्तमान में ऐसा लगता है कि आलोक तोमर जैसे कुछ लोग उनके स्वयंभू प्रवक्ता हैं। वे अपने पत्र में मेरे बारे में न जाने क्या-क्या लिखते हैं। यदि बोलचाल में भी उनकी यही भाषा है तो मुझे समझ में नहीं आता कि उन्हें जनसत्ता ने इतने दिनों कैसे बर्दाश्त किया। वे एक ओर खुद को प्रभाष जी का सबसे स्वामिभक्त मानते हैं दूसरी ओर वे यह भी बताने से नहीं चूकते कि प्रभाष जी ने जिन लोगों का चयन किया और उत्तराधिकारी बनाया उनमें से ज्यादातर निकम्मे और कई तो बाकायदा भ्रष्ट निकले।, उनका यह कहना यह दर्शाता है कि प्रभाष जोशी जी को आदमियों की पहचान नहीं है। ऐसा हो सकता है क्योंकि सच्चे लोग प्रपंच व छल कपट वालों के झांसे में अक्सर आ जाते हैं। मैं सिर्फ इस बात में कुछ और जोड़ना चाहता हूं कि जोशी जी ने कई ऐसो लोगों को भी अपना आशीर्वाद दिया जो भाषा की शालीनता को न समझते हैं न उन्हें इसका शउर है। ऐसे लोगों में तोमर व पांडेय जैसे लोग भी शामिल हैं। उम्मीद है कि प्रभाष जी ऐसों को अपना प्रवक्ता बनने का मौका नहीं देंगे।
आलोक जी ने अपने पत्र में मेरी हिम्मत, तर्क व तथ्यों की बात उठायी है। तो मैं स्पष्ट करना चाहूंगा कि न तो मैं आलोक जी की तरह चंबल की पृष्टभूमि से आया हूं और न ही तिहाड़ में रहने का कोई मौका मिला है। इस लिहाज से आलोक जी मुझसे ज्यादा हिम्मती हो सकते हैं। हां अगर गाली गलौज को वे तर्क व तथ्य समझते हैं तो यह भी उन्हें ही मुबारक हो। जहां तक जनसत्ता को असफल अखबार बताने की बात है तो मैं यह कहना चाहूंगा कि, तूफान में तो तिनके भी आसमान पर पहुंच जाते हैं। इसका यह मतलब नहीं है कि वे हवाई जहाज अथवा पतंग की तरह हैं। जिन दिनों जनसत्ता अखबार पैदा हुआ था इमरजेंसी व कांग्रेसी भ्रष्टाचार के प्रति आम जनमानस में भारी रोष था। जनसत्ता ने शुरु होने के साथ ही भ्रष्टाचार पर जमकर लिखा। प्रभाष जोशी जी इसके अगुवा थे। उन दिनों मैं छात्र हुआ करता था। एक दिन पुराना अखबार भी एक दम ताजे अखबार की तरह पढ़ने का इंतजार रहता था। तब से काफी समय गुजर गया। दुनिया बदल गई, अखबारों की भाषा बदल गई, संपादक बदल गए। अगर कुछ नहीं बदला तो जनसत्ता अखबार। बड़ी पुरानी कहावत है कि मूर्ख व मृत लोग अपने विचार नहीं बदलते हैं। अब यह कहावत कितनी सही है हमें नहीं मालुम लेकिन न बदलने का खामियाजा इस अखबार को भुगतना पड़ा। और यह अखबार अब एक असफल अखबार बन चुका है।
अगर समय के साथ यह अखबार नहीं बदला तो इसके लिए अकेले मालिक को ही नहीं बल्कि संपादक को भी दोषी माना जाएगा। वह भले ही प्रभाष जोशी हों।
दयानंद पांडेय को तो खैर मैं लखनऊ से जानता हूं। मैं उन पर निजी टिप्पणी करके स्पेस खराब नहीं करना चाहता हूं। पांडेय जी से सिर्फ यही कहना चाहता हूं कि मंजिल तय करने के लिए सड़क पर चलना पड़ता है। चौराहे पर लगातार गोल चक्कर लगाने से कोई मंजिल हासिल नहीं होती है।
बृजेश सिंह
9 comments:
चौराहे पर लगातार गोल चक्कर लगाने से कोई मंजिल हासिल नहीं होती...... बिल्कुल ठीक, ब्रिजेश जी आपने ठीक लिखा है, आपके विचारों से मै क्या समूचा युवा पत्रकार बिरादरी सहमत होगी
चौराहे पर लगातार गोल चक्कर लगाने से कोई मंजिल हासिल नहीं होती...... बिल्कुल ठीक, ब्रिजेश जी आपने ठीक लिखा है, आपके विचारों से मै क्या समूचा युवा पत्रकार बिरादरी सहमत होगी
sandarbh chahe jo bhi ho. mai aplogo ki shreni se bahut niche ki paydan par kam karne wala patrakar hun. lekin apsi ojswi bhasha ka kayal. apke prashna uttar dhoondh rahe hai aur jo jawab mila hai wah khud ek prashna hai. apne dobara prashn kiya hai wah bhi itane salin shabdo me ki main apka prashanshak ban chuka hun.
aapne sahi likha hai. mein aapke vicharo se sahmat huha hu. ese hi likhate rahiye.
arvind sharma
apkikhabar.blogspot.com
आदरणीय बृजेश जी,
आज पत्रकारिता का जो चरित्र और चाल अस्तित्व में है, क्या आप उससे सहमत हैं। प्रभाष जोशी जी और आप काफी अनुभवी हैं, लिहाजा हम जैसे नये लोग तार्किक रूप से बात कर सकते हैं, परन्तु किसी एक के पक्ष में नहीं जा सकते। मैं भी आपके जागरण समूह से काफी वर्षों तक जुड़ा रहा हूं और जागरण की कार्य पद्धति को बेहतर तरीके से जान रहा हूं। आप ही बताइये क्या आपको जागरण से जुड़े उन पत्रकारों के हालत की जानकारी है, जो रूट लेबल से अपने अखबार के लिये खबरों को जुटाते हैं। हर रोज अखबार का पन्ना काला करने में उनके सपने काले हो जाते हैं। आप जैसे या बड़े शहरों के पत्रकारों को छोड़ दिया जाय तो क्या आपको जानकारी है कि जागरण अपने तहसील स्तर, ब्लाक स्तर के पत्रकारों के साथ कैसा रवैया अपनाता है? शायद आपको जानकारी न हो, क्योंकि आप दिल्ली में पत्रकारिता करते हैं। बदले में जागरण से उन्हें क्या मिलता हैं, मात्र चंद सौ रूपये.....अगर खबरें छूट गईं तो सीनियर से मिलती है बेइज्जती....।आप जनसत्ता के बदलाव की बात करते हैं, परन्तु इस स्थिति में आप का अखबार कितना बदला है। अपने अंशकालिक संवाददाताओं को बदले में क्या देता है? अपनी जवानी के बेहतरीन समय अखबार को देने वाले पत्रकारों को अंत में क्या मिलता है, आप जैसा पत्रकार कभी सोचता है? फिर इस स्थिति में तो आपका सवाल भी अधूरा ही रह जाता है! हमारा आपसे या आपके अखबार से कोई विद्वेष नहीं है, परन्तु जब आप लोग पत्रकारिता की बड़ी बड़ी बातें और दावे करते हैं तो क्या आप लोगों के जेहन में जमीन से जुड़े उन पत्रकारों का ख्याल आता है, जो पत्रकारिता करते करते खाने को मोहताज हो जाते हैं, जिनके बच्चे अच्छे स्कूल में पढ़ने के सपने नहीं देख सकते, जिनके परिजन बीमार हो जायें तो उधारी में दवा करानी पड़ती है। शायद नहीं! क्योंकि आप उच्च शिक्षित अच्छे कुलीन परिवार से संबद्ध होंगे, लिहाजा आपको ग्रामीण पत्रकारिता करने की जरूरत नहीं पड़ी।आपने ने निश्चित इस मुकाम को पाने में संघर्ष भी किया होगा, परन्तु सब लोग ऐसा कर सके, करें यह तो जरूरी नहीं। तो क्या चुनाव के दौरान इतना बड़ा पैकेज लेने के बाद जागरण समूह अपने स्ट्रिंगरों, ग्रामीण पत्रकारों को जीवन यापन लायक सेलरी देगा ? यह तो आप भी नहीं बता सकते क्योंकि आप भी एक कर्मचारी हैं, मैनेजमेंट में शामिल नहीं हैं। दुखद यह कि अपने अखबार मालिकों के जेहन में रूट लेबल के पत्रकार दलाल होते हैं, जिसके चलते उन्हें तनख्वाह देने की जरूरत नही महसूस की जाती क्योंकि वो तो बाहर से ही कमा खा लेंगे। इन्हीं संवाददाताओं, स्ट्रिंगरो से अखबारों को प्रत्येक मौकों पर विज्ञापन की चाहत भी होती है, बार बार लोगों के सामने हाथ फैलाने वाला पत्रकार सच लिखने की हिम्मत नहीं करता है, क्योंकि इन लोगों से ही उसे विज्ञापन लेना है। अगर वह कुछ लिखने की हिम्मत करता है तो विवादित बनाकर इसे छापा नहीं जाता है। अगर पत्रकार कभी फंस गया तो उसे दूध की मक्खी की तरह बाहर निकाल कर फेंक दिया जाता है। अब इस स्थिति में बिरले पत्रकार होगा जो पत्रकारिता कर सकेगा, लिहाजा जब उसका अखबार दलाल बन जाता है तो वह भी पत्रकारिता के आड़ में दलाल बन जाता है। कुछ शौक से बनते हैं तो कुछ मजबूरी में दलाल बन जाते हैं। बड़े शहर में महंगे गिफ्ट लेने वाला पत्रकार ईमानदार होता है, गांव में गिफ्ट लेने वाला बेइमान। उम्मीद है अब पत्रकारिता का सच और अपने अखबार का सच आपके सामने है। उम्मीद है अब आप पत्रकारिता के दूसरे चेहरे के बारे में भी लिखेंगे?
आपका
अनिल सिंह
अनिल जी, आपनें जो बात कही हैं वो कई मायनों में सही है,ये एक ऐसी सच्चाई है जिसे जाननें की हिमाकत कोई भी चैनल हैड या अखबारी संपादक नहीं करता, क्योंकि उनके आस-पास चमचों और चाटुकारों का ऐसा चक्रव्यूह होता है जिसमें घुसनें के लिए आपका कौरव होना अनिवार्य हो जाता है। मुझे इस बहस से ऐसा लग रहा है जैसे कि ब्रिजेश जी और प्रभाषजी में कोई निजी मतभेद हो,ब्रिजेश जी आपके उदाहरण जो थे ना की एक गोल चक्कर...और तूफान में तिनके का उड़ना..आदि! वो एक अच्छे अखबार का अपमान कर रहे हैं। जो अखबार आपके और न जानें कितनें औऱ पत्रकारों के लिए प्रेरणास्त्रोत बना।
bahut sahi, anil singh ji..
mai aapse poori tarah sahamat hu.n...bhale hi maine grameen patrakarita nahi ki...par jagarn ke sath kaam karne ka katu anubhav mujhe bhi hai. fir jagran hi kyo kamovesh har akhbar me isthiti lagbhag ek jaisi hi hai.
bahut sahi, anil singh ji..
mai aapse poori tarah sahamat hu.n...bhale hi maine grameen patrakarita nahi ki...par jagarn ke sath kaam karne ka katu anubhav mujhe bhi hai. fir jagran hi kyo kamovesh har akhbar me isthiti lagbhag ek jaisi hi hai.
brajesh ji aap chahe jitne bare patarakar hon lekin aap jis sanasthan ke sath jure hain, jahan se aap ki daal rooti chal rahi hai uske liye likhye maalik khus honge aur aap ko kuch mil jayega lekian ye sach hai ki aap janha hai mins jagran main aapko naitik aadikar hi nahi banta hai ki aap aapne aap ko patrakar kahen chota ya bara kiun ki election me aap ke akhbaer ka kaam ye sabit kar diya hai ki wo aakbar nahi source of income hai bas is liye pls ap agar apne aap ko patrakar kahen ge to patrakar log dalal kis ko kahenge
koi paresani naho is liye main apna email de raha hun purushottamlkr@gmail.com
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