शहर की सड़कों पर लोगों को सुरक्षित रखने के लिए दिल्ली पुलिस फिर सप्ताह मना रही है। इसके तहत सप्ताह भर पूरे शहर में विशेष चौकसी, नियमों का पालन न करने वालों पर कार्रवाई, चालान, प्रेस कांफ्रेंस, अखबारों में उपलब्धियों की फोटो छपवाना जैसे काम शामिल रहेगा। उसके बाद? हम व आप तो अगले हफ्ते भी इसी सड़क से गुजरेंगे। तब क्या होगा? यही वह सवाल है जो पुलिस के सड़क सुरक्षा सप्ताह पर सवालिया निशान लगा देता है। हर साल यहां की सड़कों पर दो हजार से ज्यादा लोग दुर्घटना में दम तोड़ देते हैं। इनमें आधे से अधिक ऐसे लोग होते हैं जो किसी वाहन पर सवार नहीं होते, बल्कि पैदल चल रहे होते हैं। अब पुलिस हर वाहन चालक के पीछे तो चल नहीं सकती, इसलिए राजधानी में वाहन चलाने वालों के लिए सड़क के नियमों के प्रति ज्यादा सतर्कता के लिए सिर्फ पुलिस का सप्ताह व पखवाड़ा अभियान चलाना पर्याप्त नहीं होगा। जिस तरह दिल्ली के चुनाव में मतदान के लिए पप्पू अभियान में तमाम संगठन, मीडिया व संस्थाओं ने भागीदारी की थी, उसी तरह ट्रैफिक सेंस बहाल करने के लिए भी प्रयास करने की जरूरत है। लेकिन इससे पहले दिल्ली पुलिस खासकर ट्रैफिक पुलिस को अपना चाल-चलन सुधारना होगा। आम आदमी तभी इस अभियान से जुड़ेगा। नई दिल्ली के युवा सांसद अजय माकन दिल्ली वालों के सौभाग्य से केंद्र में गृह राज्यमंत्री बन गए हैं। वे भी अपनी साफ-सुथरी छवि का इस अभियान में इस्तेमाल कर सकते हैं। माकन साहब, वैसे भी चुनाव के दिनों में आपने रैली न निकालकर जताया था कि आप ट्रैफिक जाम से लोगों को बचाना चाहते हैं। अब आप जनता के सहयोग से मंत्री बन गए हैं तो लोगों को उम्मीद है कि सड़क पर ट्रैफिक से जाने वाले जिंदगियों को बचाने के लिए भी कुछ जरूर करेंगे। जब तक सड़क पर चलने वाला हर वाहन चालक व पैदल यात्री ट्रैफिक नियमों को दिल से इज्जत नहीं देगा, तब तक वह इस पर ईमानदारी से अमल भी नहीं करेगा। केवल चौराहों पर ट्रैफिक पुलिस खड़ी कर देने से अथवा चौराहों के पीछे छिपकर नियमों का उल्लंघन करने वालों को पकड़कर चालान काट देने भर से न तो सड़कों पर खूनी खेल थमेगा, न बहुमूल्य जिंदगियों को बचाया ही जा सकेगा।
दिल्ली पुलिस के मुखिया युद्धवीर सिंह डडवाल ने डेढ़ साल पहले जब पदभार संभाला था तो उन्होंने कहा था कि राजधानी में किसी भी अपराध से ज्यादा सड़क हादसों में लोगों की मौत होती है। वे प्राथमिकता के आधार ट्रैफिक व्यवस्था में सुधार करके इन मौतों पर अंकुश लगाएंगे। यदि वे अपने प्रयास से कुछ जिंदगियां बचा पाएं तो किसी भी अन्य अपराध को रोकने से यह काम ज्यादा महत्वपूर्ण होगा। लेकिन ऐसा हो न सका। लोग अब भी सड़कों पर कीड़े-मकोड़ों की तरह मर रहे हैं। जनवरी 2009 से अब तक पांच माह में राजधानी की सड़कों पर दुर्घटना में आठ सौ लोगों की जान जा चुकी है। इनमें से आधे लोग या तो पैदल राहगीर थे या सड़क पार कर रहे थे। ऐसा नहीं है कि इन हादसों में मरने वाले पैदल यात्रियों की गलतियां नहीं होती हैं, लेकिन यहां सवाल है कि दिल्ली की सड़कों पर सालाना होने वाली हजारों मौत का खेल आखिर कब तक जारी रहेगा। इसे रोकने के लिए केवल पुलिस ही नहीं हम सबको आगे आना होगा।
2 comments:
पप्पू तो ठीक पप्पुओं के पापाओं का क्या होगा।
papu ke khila to dik. magar unke mami-papa ka kya.
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